” कान्हा की उलाहना “
सुनहु मात हम वैसहु नाई।
जैसन ई सब नारि बताई।।
मै नही चोरी माखन कीनि।
कर बरजोरी मुख मलि दिनि।।
पहर तलक मोहे नाच नचायो।
पकरि मोहि मुरली बजवायो।।
नाच-नाच गये पांव पिराई।
कमर लगै अबहि टुटि जाई।।
का सुनती तू मैया इनकी।
रही उलाहना आदत जिनकी।।
तू मोहि लाड लगावै जितना।
निरखि जरै मोसे ये उतना।।
भोली तू कछु ना बुझै माई।
इनकी मैं बूझ रहा चतुराई।।
जब बांधे तू ओखल साथ।
हँसती लुगाई हाथ दई हाथ।।
मात-पूत चाहे बिलगाई।
रही खूब यह आग लगाई।।
मेरो घर का कम है माखन।
जांऊ जो खाने इनके आगंन।।
मोहे दिनही झूठ फसायो।
माखन घर में खुद छितरायो।।
दाउ संग मैं चराऊ गइया।
ना जाऊ अब इनकी गलियां।।
मैया वचन सुनि मुस्काई।
कान्हा को ली कन्ठ लगाई।।
-शशि “मंजुलाहृदय”