कागज़ की क़लम से
रंग मौसम ख़ुशबू की चर्चा हाथ में पिचकारी
ढोलक ढपलियो की तान पे नाचने की तैयारी
खुनी रंग लहू का छिटकता देख मानवता का
नंगे पाँव पर चलने को दिल से खुश है आरी
माँ की जान पर बन आई तो फुट कर रो पड़ी
भूखे पेट सो गए बच्चें फुट गई किस्मत म्हारी
ठोकरें लगी तो तूफ़ान को भी पसीना आया
लड़ता हुआ दीपक था अब आंधियो पे भारी
बहुत देख लिया सुन लिया है हाल दिलो का
खेल खत्म उठाकर अपनी दुकाँ चला मदारी
ख़ाक कमाल है अशोक की लेखनी में यारों
ये तो कलम की है सदियों से कागज से यारी
अशोक सपड़ा की कलम से