*कागज पर जिंदगी*
जब कुछ लिखा मैंने जीवन की कठिनाई को,
उजड़े हुये मण्डप की खामोश शहनाई को!!
सपनों के नील गगन में, जज्बातों को बोने लगे,
कागज पर लिखी जिंदगी, तो शब्द-शब्द रोने लगे!!
दहेज के नाम पर सिसकती दुल्हन,
माली को तरसता बेरंग वह चमन,
बूढ़े बाप की यूं टूट जो चूंकि है लाठी,
काम के बोझ में दबा मेरे शहर का ख़ाकी!!
जब लिखा है मैंने बेरोजगार का हर दर्द,
गरीबों की भुखमरी औऱ इंसान खुदगर्ज है,
संवेदनाओं की अर्थी को हम सब ढोने लगे,
कागज पर लिखी जिंदगी तो शब्द-शब्द रोने लगे!!
सत्ता की बाहों में झूलते नेताओं के किस्से,
दंगाइयों की भीड़ में लोगों को चीखते बिलखते,
सच मानिए भाई साहब मेरे शब्द खोने लगे,
कागज पर लिखी जिंदगी तो शब्द-शब्द रोने लगे!!
जब मैने लिखा बौद्धिकता के प्याले में,
छलकता जाम बेबस लोगों के हिस्से में,
सारा आसमान उपद्रवियों को लिखा,
समाज के ठेकेदार महकते बागबान में!!
शिकारियों को जब वो अधिकार मिला,
मूर्खों की महफ़िल में जब गूंगे बोलने लगे,
कागज पर लिखी जिंदगी तो शब्द-शब्द रोने लगे!!
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©️ डॉ. शशांक शर्मा “रईस”
बिलासपुर, छत्तीसगढ़