कागज के रिश्ते
कागज के रिश्ते
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सम्हल गए हम, रिश्ते समझते हुए
रिश्ते कागज के यूं, बिखरते हुए
डोर बांधी थी ,रिश्ते बनाते हुए
न जाने कब उड़ गए,कागज बनते हुए।।1।।
उलझने बहुत थी,रिश्ते बचाते हुए
उलझ सा गया था, कुछ सुलझते हुए
गिर गए थे रिश्ते, सिर्फ कागज के लिए
मैं ही एक बचा था, कागजी रिश्ते लिए।।2।।
अनजाने शहर में घूम रहा,आवारा हुए
खोज रहा था, रिश्तों की डोर लिए
मालूम पड़ा जब, रिश्ते घूमते हुए
बिक जाते हैं लोग, कागज़ी रिश्तों के लिए।।3।।
निकल पड़ा हूं अब, रिश्तों को छोर किए
उड़ चला है विश्वास, रिश्तों की डोर लिए
न जाने क्यों कहे, दूसरा मन आहें लिए
कागज़ी क्यों न हो, रिश्ता तो है जीने के लिए।।4।।
मंदार गांगल “मानस”