कांच की आंख
भागता हूं जिम्मेदारियों से की ।
भागने की आदत सी हो गई यू ।।
पैरों तले जगह नहीं ।
और खयाल आसमान के देखता हूं ।।
गीली बत्ती है हाथों में मेरे ।
और सूरज जैसा रोशन खुद को मैं देखता हूं।।
चलती सड़कों पर खयालों के परे ।
चेहरे बिकते दिखते हैं ।।
और मैं अपना चेहरा छोड़ ।
नया चेहरा लगाने को देखता हूं ।।
सुनहेरी रेट मैं गिली मिट्टी हाथ लगी मेरे ।
और लोगों को मिट्टी पर रोते में देखता हूं।।
निराशा में आशा छुपी लगती है मुझे
पर लोगों को मैं पागल।
और खुद को पागल मैं देखता हूं ।।
:- हर्ष राज