काँच के टुकड़े तख़्त-ओ-ताज में जड़े हुए हैं
ग़ज़ल
काँच के टुकड़े तख़्त-ओ-ताज में जड़े हुए हैं
कोहिनूर तो सब धरती में गड़े हुए हैं
हम बाहें फैलाए कब से खड़े हुए हैं
अपनी ज़िद पर आप अभी तक अड़े हुए हैं
देख तेरे पैरों में कहीं ये चुभ जायें ना
दर्द बहुत देंगे ये काँटे सड़े हुए हैं
धोका खाये सब्र के घूँट पिये हैं हमने
बस ऐसे ही तो पल कर हम बड़े हुए हैं
मुझको तो बस इनमें याराना लगता है
फिर कैसे नैनों से नैना लड़े हुए हैं
तोहफ़े में बैसाखी दी थी हमको, जिसने
हैराँ है वो हम पैरों पर खड़े हुए हैं
दूजे साँचे में हम ढलें ‘अनीस’ अब कैसे
वक़्त की भट्टी में पक कर जो कड़े हुए हैं
– अनीस शाह ‘अनीस ‘