क़ुर्बान ज़िंदगी
जो भी पल थे वो बिखरते चले गये ,
जो भी अपने थे वो बिछड़ते चले गये ,
हम इक मुकाम पर खड़े बस
तमाशा देखते रहे ,
कुदरत पर बस नहीं था ,
मुक़द्दर का शिकवा करते रहे ,
वक्त की करवट और ज़माने की फ़ितरत पर
कोई भरोसा नहीं था ,
इस ज़िंदगी के सफ़र में कोई अपना सा
दर्दमंद नहीं था ,
ख़ाव्हिशें थी कुछ वो दफ़्न
होकर रह गई ,
ज़िंदगी इस क़दर औरों की ख़ातिर क़ुर्बान
होकर रह गई ।