क़ानून
हमारे प्यार पर लगाया , ठप्पा उसने कानून का
न जाने कब , क्यों , हम उसके मोहताज़ हो गए।
तूने बनाया कानून , अपनी सहूलयतों के लिए
न जाने कब , क्यों, हम उसकी कैद हो गए।
मैं मांगूं न्याय , कहां , किससे
सहानुभूति, क्षमा , शब्द तो अपवाद हो गए।
तुम तोड़ो कानून तो ठीक , हम तोड़ें तो मुजरिम
ऐसे किस्से हर रोज़ , सरेआम हो गए।
तुम कहते हो प्रजातंत्र है , तो होगा
पर सच तो सारे , नीलम हो गए।
—— शशि महाजन