क़ाइम कहाँ किसी का सदा रह सका सितम।
ग़ज़ल
क़ाइम कहाँ किसी का सदा रह सका सितम।
है चन्द रोज़ा बस ये सितमगर तिरा सितम।
कब तक तू ज़ुल्म ढाएगा कब तक सताएगा।
ज़ालिम समझ के सोच के तू हम पे ढा सितम।
तेरे ये तख़्त-ओ-ताज न कुछ काम आएँगे।
हिम्मत से मेरी जब तिरा टकराएगा सितम।
ज़ालिम वो एक रोज़ ज़माने से मिट गया।
मज़लूमों पर जो ढाता रहा था बङा सितम।
मुन्सिफ़ है तेरा,,, तिरी अदालत ग़ुलाम है।
रोकेगा तुझको कौन तू जी भर के ढा सितम।
हम पर नहीं किसी की नज़र आज मेह्रबाँ।
जिसको भी देखो हम पे वही ढा रहा सितम।
खोले जो मैंने होंट “क़मर” सी दिए गए।
हक़ बोलने से लगता है ख़ुद पर किया सितम।
जावेद क़मर फ़ीरोज़ाबादी