क़फ़स
क़फ़स
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जब भी नफ़रतें पलती हैं,
नाज़ुक से दिल में,
कुछ भी हासिल नहीं होता,
इस महफ़िल में।
फिर भी क़फ़स में,
मुहब्बत सिसकता क्यों है ?
क़फ़स आज ,
परिन्दों का घर बनता क्यों है?
मानवता और प्रेम का संजोये सपना ,
शेष है जेहन में यही तमन्ना।
रहे जब तक मेरा अस्तित्व,
इस धरा पर।
कर दूँ मुक्त नफ़रत और आतंक की हर ठोकर,
सहिष्णुता और प्रेम का साम्राज्य ,
फैला हो हर घर-घर ।
परिन्दें आज़ाद विचरण करे ,
धरा और अपरिमित नभ में ,
स्वच्छंद और भयमुक्त होकर…
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि –०३ /११/२०२२
कार्तिक,शुक्ल पक्ष,दशमी , गुरुवार
विक्रम संवत २०७९
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