क़दमों के निशां
घाव दिलों के गहरे ,जमाने के तानों से रिसते चले गए,
मेरे क़दमों के निशाँ ,वक्त की लहरों से मिटते चले गए !
समेटी जिंदगी भर की तन्हाइयां इन बेबस हाथों ने ,
कुछ ख़ास रिश्ते बेबजह ही खिंचते चले गए !
घुल गईं खुशियाँ भी, ग़मों के आँसुओं में कहीं,
ख्वाब आँखों में थे, मगर पलकों से फिसलते चले गए।
हमने तो बस चाहा था, चंद लम्हों की रोशनी,
पर उम्मीदों के दिए, आँधियों में बुझते चले गए।
किस्मत ने भी खेला, अजीब सा खेल हमसे,
मंज़िलें करीब थीं, मगर रास्ते बिछड़ते चले गए।
‘असीमित ‘ भुला ही दिया है वक्त की जालिम फरेबियाँ .
‘हम तो अपने ही दामन में सिमटते चले गए !
~डॉ मुकेश असीमित