ग़ज़ल – कह न पाया आदतन तो और कुछ – संदीप ठाकुर
कह न पाया आदतन तो और कुछ
चाहता था पर ये मन तो और कुछ
बस गले लग कर अलग हो ही गये
चाहते थे तन-बदन तो और कुछ
छोड़ते हैं पेड़ कब अपनी ज़मीं
है परिंदों का चलन तो और कुछ
शायरी से कुछ न होगा याद कर
बोली थी वो पहले बन तोऔर कुछ
कस दिया तुम ने इन्हें धागे से पर
चाहते थे ये बटन तो और कुछ
हो नहीं पाता बयां शेरों में भी
है असल लफ़्ज़ों का फन तो और कुछ
उसकी अंगूठी उसे लौटा मगर
अपनी उंगली में पहन तो और कुछ
संदीप ठाकुर
Sandeep Thakur