“कहो कहाँ क्या तुमने कमाया!”
धन दौलत ज़ायदाद ज़मीन,
जगत तुमने क्या खूब कमाया|
महल अटारी सदन दुमंजिल,
मज़बूरों को बस नाच नचाया|
कहो कहाँ क्या तुमने कमाया!
रोशन आसमां पहले तुम्हारा,
पाई धरा सब दिक् उजियारा|
पुस्तैनी बनी हुई सुमंज़िल पर
तुमने बस इक कलश जमाया|
कहो कहाँ क्या तुमने कमाया!
तुम जागे ना दिन-रात सहारा,
जगता रहा मज़लूम बेसहारा|
सुयश-नगरिया के भ्रमर बन,
दिल में बाग ना तुमने उगाया|
कहो कहाँ क्या तुमने कमाया!
सूरज जलता परहित ख़ातिर,
चांद भी चमकता पर ख़ातिर|
तुम चमकते अपनों की ख़ातिर,
‘मयंक’ तुमने बस स्वार्थ कमाया|
कहो कहाँ क्या तुमने कमाया!
✍ के.आर.परमाल “मयंक”