कहूँ दर्द अपना मैं कैसे किसी से
कहूँ दर्द अपना मैं कैसे किसी से
कि लगता है डर मुझको अपनी ख़ुदी से
समन्दर न जाने है क़तरे की क़ीमत
कि बनता है आख़िर समन्दर इसी से
न हिम्मत तुम्हारी मैं कम होने दूंगा
मैं हारा हुआ हूँ भले ज़िन्दगी से
भला ऐसी दुनिया में कोई जिए क्या
जहाँ आदमी ख़ुद डरे आदमी से
मिरा साथ दे जो दमे-आख़िरी तक
रखूँ वास्ता मैं भी बस इक उसी से