कहीं व्यर्थ की तो नहीं है यह कड़वी दवा?
(यह लेख मैंने नोटबंदी की घोषणा के तीसरे दिन 10/11/2016 को ही लिखा था, जब सारे लोग, तमाम अखबारों के विद्वान स्तंभकार और संपादकीय लेखक मोदीजी की वाहवाही करने में जुटे थे. आम लोगों से बहस करो तो वे चिढ़ जाते थे. अन्य राजनीतिक दल के नेतागण तो कुछ दिन जैसे स्तब्ध ही रह गए थे. उस वक्त सारा देश राष्ट्रभक्ति के तरानों के साथ बैंकों की लाइन में इस कदर खड़ा था मानो वह भारत-पाक बार्डर पर देश की रक्षा में तैनात हो.)
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किसी के इस दावे पर कि यह कड़वी दवा या टोटका आपके और आपके परिवार की सेहत के लिए है, इसका एक माह तक सेवन करें जरूर लाभ होगा, आप उसका उसके मुताबिक दवा का सेवन करते हैं. लेकिन बाद में यदि आपको यह पता लगे कि इससे तो आपकी सेहत बनना तो दूर बिगड़ गई. फिर बाद में यह पता लगे कि उस दवा देने वाले ने जरूर अपना उल्लू सीधा कर लिया तो आपको कैसा लगेगा?
कहीं ऐसा ही ‘कालेधन पर सर्जिकल स्ट्राइक करने के दावे’ के नाम पर तो नहीं किया जा रहा है ? दफ्तर हो, स्कूल-कॉलेज हो, खेत-खलिहान हो, कल-कारखाने हों, रेलवे स्टेशन-बसस्टैंड हो, शादी-जन्मदिन समारोह हो, शहर या गांव-चौपाल हो, सब तरफ बस इसी की चर्चा है. लोग खास तौर पर भक्तगण अपना ‘छप्पन इंची’ सीना तानकर यही कहते पाए जा रहे हैं- गजब हो गया भैया, सबकी तो वाट लग गई. चर्चा करनेवाले चर्चाएं तो इस अंदाज में कर रहे हैं मानों यह वीरता उन्होंने ही की है लेकिन लोगों का यह उत्साह कितना सार्थक है?
सच तो यह है कि मास्टर कम्युनिकेटर के रूप में मशहूर नरेंद्र मोदीजी ने इस बार उत्तर प्रदेश और पंजाब की चुनावी गंगा को पार उतरने जनता के बीच संवाद साधने के लिए नोट का सहारा लिया है और संदेश दिया है कालेधन और आतंकवाद से लड़ाई का. इसी के साथ उत्तर प्रदेश फतह की दृढ़ मंशा के साथ अगले लोकसभा चुनाव की तैयारियों की नींव भी रख दी है. जब भी 500 या 2000 रुपए का नया नोट हाथ में आएगा तो लोगों को सरकार की कथित 56 इंची सीनाधारी महाबली की ‘वीरता’ की याद आती रहेगी.
प्राचीन भारत के राजनीति-कूटनीति के जानकार चाणक्य और पाश्चात्य राजनीतिक विचार मैकयावली के ग्रंथ क्रमश: ‘अर्थशास्त्र’ और ‘द प्रिंस’ में सत्ताधीश या राजा को जनता के असंतोष-शमन के उपायों में से एक प्रमुख उपया बताया गया है-‘राजा अपने आपको जनता के असंतोष से बचाए रखने के लिए जनता को विदेशी आक्रमण और किसी भयानक आंतरिक संकट का भय दिखाता रहे.’ यहां भी कुछ ऐसा ही तो नहीं किया जा रहा है?
प्रधानमंत्रीजी ने जिस मुद्रा में इस रोमांचक फैसले का ऐलान कर बार-बार यह दोहराया कि कालाधन इससे खत्म हो जाएगा, उससे आम आदमी बड़ा खुश है. हालांकि किसी भी समझदार व्यक्ति की समझ में नहीं आ रहा है कि कालाधन किस तरह खत्म होगा? वास्तविकता तो यह है कि जो बड़े धनपिशाच होते हैं, उनके दलाल सत्ता के गलियारे में रहते हैं. उनको सरकार के हर फैसले की भनक होती है. फिर यह पहल तो गत 9 माह से जारी थी. कालाधन रखनेवाले मगरमच्छों ने तो कब का वारा-न्यारा कर लिया होगा? अब रही बात एक हजार का बड़ा नोट बंद कर कालाधन रखने में अड़चन डालने की तो बड़े नोट बंद ही कहां हुए हैं, बल्कि एक हजार की बजाय उससे दुगना बड़ा यानी दो हजार का नया नोट सामने लाया जा रहा है.
इससे भी बड़ा सवाल है कि कालाधन यानी नंबर-दो का पैसा नोटों की शक्ल में कितने लोग रखते होंगे? कालाधन रखने का मुनाफेदार जरिया सोना और बेनामी जमीन-जायदाद होते हैं. अर्थशास्त्र का नियम है कि धन का वेग घटा दिया जाए तो उसका मूल्य भी घटता है. धन का वेग घटने का मतलब कि अगर पैसे को बाजार में घुमाया न जाए तो उसका मूल्य तो वैसे ही कम होता चला जाता है. यानी कालाधन धड़ल्ले से उद्योग-व्यापार में खपा रहता है. वैसे उसे सफेद करने की ऐलानिया योजनाओं का तो ढेर लगा हुआ है. थोड़ा सा जुर्माना देकर कोई कितना भी कालाधन सफेद कर ले गया. धर्मादाय ट्रस्ट और सामाजिक संस्थाओं से जोड़तोड़ कर काले से सफेद और टैक्स बचाने के तरीके खत्म नहीं हो रहे हैं बल्कि रोज-ब-रोज बढ़ ही रहे हैं.
भ्रष्टाचार पर कितना असर होगा, इसका कोई हिसाब नहीं लग पा रहा है. वैसे कहा यह जा सकता है कि घूस लेने के लिए बड़े नोटों के लेनदेन में जो सुविधा होती थी, वह और बढ़ सकती है. फिलहाल अनुमान लगाया जा सकता है कि दो हजार का नोट चल पड़ने के कारण अटैची में दुगनी रकम लेकर चलने में आसानी हो जाएगी. यानी पुराने बड़े नोट बंद करने से भ्रष्टाचार कैसे रुकेगा, इसकी तार्किक व्याख्या तो मुश्किल है.
फिर बताइए कालाधन किस तरह सामने आया? आगामी समय में इस पर कैसे रोक लगेगी ? दावा तो यह किया जा रहा था कि कालाधन और कालाधन रखनेवालों के नाम सामने लाए जाएंगे. लेकिन अभी जो भी पैसे जमा किए जा रहे हैं वह तो सब सफेद है, और जो थोड़ा-बहुत कालाधन होगा वह तो सिर्फ कागज रह जाएगा, सरकार के खजाने में कहां आया? और उनके नाम कहां से सामने आएंगे?
(इस लेख के बाद तो मैंने लगातार तथ्यपरक, तार्किक तौर पर आंकड़ों की व्याख्या सहित कई लेख अपनी डायरी और फेसबुक पोस्ट में लिखे थे. नोटबंदी के दौरान लोगों की प्रतिक्रिया देखकर मैंने महसूस किया कि अधिकांश लोग अपनी उदरपूर्ति की गतिविधियों के दायरे में ही सोच-विचार करते हैं, बाकी क्षेत्रों में बहुत ही सतही चिंतन रखते हैं. पीएम जी ने नोटबंदी के जो तीन लाभ गिना रहे थे, वे सीधे-सीधे एक ही नजर में खारिज हो रहे थे लेकिन उस वक्त कोई सुन ही नहीं रहा था.)