*नहीं कहीं भगवान रे*
कोरोना ने तय कर दीन्हा, मानो बात इंसान रे!
ये तो तय है मंदिर-मस्जिद,नहीं कहीं भगवान रे,
सबसे पहले करलो तुम मानवता की पहचान रे !
पंच तत्व पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश,
मिल जाते स्वतः अपने में, क्यों घमण्ड करे इंसान रे!
छोटा-बड़ा नहीं कोई जग में, न कोई ऊँच महान रे,
न कोई जाति, न हो पाँति, सब मानव एक समान रे!
जब तक जीना तब तक सीना, राजा रंक फकीर,
महज उलझनों में फँसा है, जीवन ओ इंसान रे!
तेरा-मेरा इसका-उसका, झूठी दुनिया की शान रे,
इस पल की ये श्यामल बदली, उस पल में ढल जानी,
मयंक बुलबुला जीवन पानी का, कर न गर्व इंसान रे!
अपने ही देशवासियों (दलितों ) से छूत मानने वालों ! अछूत होकर स्वयं आज कैसा महसूस कर रहे हो ? जब अपने ही अपनों से वर्षों से छुआछूत करते आ रहे हों, तो सोचिए उन (अछूत, दलितों) पर क्या बीतती होगी!
ज़रा महसूस करो,
तुम्हारी नीचता को!
मानो न छूत उससे,
जो स्वयं लहु सींचता हो!!
ऊँच-नीच की रेखा खींच,
अत्याचार तुम करते आए!
प्रकृति ने भी इसीलिए,
आज तुमसे घुटने टिकवाए!
नीच कौन है सोचो दिल से,
वो जो है नीच सोचों से,
या मयंक हैं वंचित कोसों से!
घर-घर बैठे रहो आप बाहर पसरा है कोरोना |
सोसल डिस्टेंसिंग करो मगर अपनापन तुम छोड़ो ना |
मंदिर-मस्जिद सब अपने घर दर-दर उसको ढूँढो ना |
संकटकाल है सभी जानकर लाॕकडाउन को तोड़ो ना |