कहीं आदर नहीं मिलता
कभी घर में नहीं मिलता, कभी बाहर नहीं मिलता
यहाँ पर अब बुजुर्गों को, कहीं आदर नहीं मिलता
तरक्की हो गयी थोड़ी, सभी कुछ भूल जाता है
हुआ है मतलबी बेटा, कभी हँसकर नहीं मिलता
कभी भी आँख का पानी, न मरने दीजियेगा बस
नदी जब सूख जाती है, उसे सागर नहीं मिलता
थके हैं अनवरत चलकर, जहाँ आराम कर लें कुछ
न जाने क्यों उन्हें वो मील का पत्थर नहीं मिलता
भुला कर सब गिले शिकवे, कोई त्यौहार मन जाये
जिसे वो कह सकें अपना, उन्हें वो घर नहीं मिलता
न दिन में नींद आती है, न मिलता चैन रातों को
कभी खटिया नहीं मिलती, कभी बिस्तर नहीं मिलता
न दौलत की कमी कोई, न शोहरत की कोई इच्छा
घड़ी भर पास जो बैठे, कोई सहचर नहीं मिलता
रचना : बसंत कुमार शर्मा, जबलपुर