कहानी- “हाजरा का बुर्क़ा ढीला है”
कहानी- “हाजरा का बुर्क़ा ढीला है”
डॉ तबस्सुम जहां।
कॉलेज लाइब्रेरी के ठीक सामने बैडमिंटन खेलती हाजरा बार-बार मुझे अपनी ओर आकर्षित करती। वजह कि अपनी प्रतिद्वंद्वी के सामने उसका एक भी शॉट मिस नहीं होता। एक अजीब से विरोधाभास में वह खेल रही थी। एक तो बैडमिंटन दूसरे उसका लबादे-सा बुर्क़ा। अब भला बुर्क़े में कोई बैडमिंटन कैसे खेल सकता है। पर वह खेल रही थी। खूब उछल-उछल कर शॉट ले रही थी। कभी-कभार अपने बाएं हाथ से घुटनों के ऊपर इकठा हुए कपड़े को पकड़ कर शॉट लेती। जब वह शटल कॉक के पीछे दाएं-बाएं आगे पीछे दौड़ती तो नीचे हवा से उसका बुर्क़ा नुमा लबादा ऐसे फूल जाता जैसे तंदूर की रोटी ज़्यादा आंच पाकर एक साइड से फूल जाती है। उसका मैच गुलहड़ के बड़े पेड़ के ठीक नीचे हो रहा था। नीचे गिरते गुलहड़ भी वे बोनस पॉइंट समझ कर अपनी रैकेट से हवा में यहाँ वहाँ उछाल देती। मुझे हाजरा को खेलता देख खुशी होती पर उसके बुर्के से उतनी कोफ़्त भी।
मन मे सवाल उठता यह लड़की अपने तम्बू से बुर्के में भी इतना अच्छा बैडमिंटन कैसे खेल लेती है इसकी जगह मैं होती तो तम्बू से उलझ कर नाक के बल पके बेल-सी धम्म से गिरती। न जाने कितने ही दांत टूट कर हारे हुए खिलाड़ी से विदा हो जाते। पर वो हाजरा है मैं नहीं। मैं और उसमें फ़र्क है। वह अपने जिस्म पर बुर्के को कछुवे खोल-सा चिपकाए रहती है और मैं, मुझे तो कंधे पर दुपट्टा भी बोझ लगता है। ख़ासकर गरमी में तो कुछ ज़्यादा ही।
“तुम इतना अच्छा बैडमिंटन खेलती हो। अगर बुर्क़ा उतार कर खेलोगी तो और भी चुस्ती-फुर्ती से खेल पाओगी। तुम यह तंबू उतार क्यों नहीं देती? मैंने बैंच पर बैठती हाजरा से कहा।
मेरा सवाल हाजरा को भीतर कहीं कचोट गया। चेहरे के भाव भी एकदम बदल गए थे उसके। बोली-
“काश में उतार पाती, ख़ैर छोड़ो भी इस टॉपिक को। वैसे भी बैडमिंटन खेलने से बुर्के का क्या लेना देना भई। यह बुर्का ही तो मेरी असली ताक़त है ये न हो तो शायद में बैटमिंटन खेल ही न पाऊं।” कहते हुए हाजरा हँस पड़ी।
उसकी हँसी प्योर बनावटी थी। क्योंकि जब कोई वाकई दिल से हँसता है तो उसका चेहरा खिल-सा जाता है। हँसते हुए आँखों में चमक आ जाती है। पर ऐसी कोई बात मुझे हाजरा के चेहरे पर नज़र नहीं आई। कहने को हाजरा हँस रही थी पर उसकी आंखें खामोश थीं और चेहरा भावविहीन।
मुझे हाजरा का जवाब भी बड़ा बेतुका लगा। भला बैडमिंटन और बुर्क़े का क्या मेल। अच्छा है, जिस दिन बुर्क़ा पैरों में उलझेगा उस दिन इसे अक़्ल आ जाएगी। समय बीतता गया न उसका तंबू पैरों में उलझा न दांत ही टूटे। अलबत्ता हाजरा को बिना बुर्के में देखने की मेरी आस ज़रूर टूट गयी।
हाजरा की ग्रेजुएशन फर्स्ट ईयर में सबसी की तीन क्लास उसकी हमारे साथ होती थी। देखने भालने मे वह कुछ ख़ास नहीं थी। बुर्क़े में होती तो बड़ा आकर्षक लगती। बादामी बुर्के पर बादामी हिजाब उस पर ख़ूब फबता था। हालांकि और भी लड़कियां कॉलेज में बुर्के या नक़ाब में आती थीं पर हाजरा की तो बात ही अनोखी थी।
अकसर ख़ाली वक़्त में मैंने उसे बैडमिंटन खेलते हुए कई बार देखा था। चूंकि मैं बुर्के और पर्दे के कभी फेवर में नहीं थी मुझे हैरत होती कि यह लड़की इतना तेज़ होशियार होने पर भी इस तंबू में क्यों आती है। मैंने नोट किया कि हाजरा बुर्के के भीतर छरहरी काया लिए है। जब-तब वे मिलती मैं अपनी आंखों से उसके बुर्के का स्कैन शुरू कर देती। हिजाब की वजह से उसका मुहँ खुला ही रहता था इसलिए आँखों के अलावा उसके जिस्म का कोई हिस्सा स्केन नहीं हो पाता। उसकी आंखों में भी मुझे नितांत ख़ालीपन नज़र आता।
हाजरा हमेशा वक़्त पर क्लास में आती और क्लास में सबसे आगे बैठती। अपनी खूबसूरत आवाज़ में जब वे “होंटों से छू लो तुम” गीत सुनाती तो मन करता बस सुनते ही रहें। क्लास में सब लड़के उसके भाई थे। अकेले में कभी हमने उसे किसी लड़के से बात करते नहीं देखा। मैंने गौर किया कि हाजरा को बाक़ी लड़कियों के सूट बड़े पसंद आते थे और सबकी तारीफ़ वह दिल खोल कर करती थी। मैं जब किसी खूबसूरत लिबास में कॉलिज जाती तब हाजरा अकसर मेरे कपडों की तारीफ़ करते नहीं थकती थी।
“माशाल्लाह तुम्हारा सूट कितना प्यारा है। कहाँ से लिया। काश मैं भी…”
हालांकि उसने “क़ाश” बहुत हल्के से कहा था पर उसके हल्केपन से कहे लफ्ज़ ने जैसे उसके भीतर के भारीपन को मेरे सामने खोल कर रख दिया था। पहली बार मुझे हाजरा के मन मे अंतर्द्वंद्व-सा दिखा। साथ ही एक बैचैनी एक छटपटाहट भी।
एक दिन ऐसा भी आया कि हाजरा के घर जाने का मौक़ा मिला। कॉलेज से एक किलोमीटर दूर ही उसका घर था। घर पहुंचते ही उसने अपने माँ बाप से मेरा परिचय कराया। दोनों ही बड़े बुज़ुर्ग थे। घर की दशा भी काफी जर्जर लगी उसके माँ बाप की मानिंद। अंदर अपने कमरे में पहुंच कर उसने मुझे एक कुर्सी पर बैठाया और पानी पिलाया। फिर जब उसने अपना बुर्क़ा उतारा तो दिल को धक्का-सा लगा। उसने दो रंग के कपड़े पहने थे शलवार अलग और कमीज़ अलग। कपड़े काफी पुराने थे। फिर कुछ ऐसा हुआ जिसकी मुझे उम्मीद तक नहीं थी। हाजरा को कपड़े बदलने थे उसने मेरी ओर पीठ करके मेरे सामने ही अपने कपड़े उतारने शुरु कर दिए। शायद एक लड़की के सामने उसे कपड़े उतारने में झिझक नहीं हुई अब वह कुल दो अंतर्वस्त्रों में मेरे सामने थी। जिस शरीर को मैं बुर्क़े की आड़ में स्कैन करने की कोशिश कर रही थी अब वे साक्षात मेरे सामने था। एक बहुत ही दुबली-पतली काया लिए। वो हाजरा नहीं थी एक कंकाल मात्र थी। एक सूखा-सा लंबा पेड़ जो ऊपर पहुँच कर झुक गया था। हाजरा दीवार पर लगे कोने झड़े आदमकद आईने में खुद को निहार रही थी और मैं उसके कृशकाय हड्डियों के ढांचे को। मैंने नज़रे झुका लीं।
उस रोज़ मेरी आँखों से नींद कोसों दूर थी रह-रह कर हाजरा आँखों के सामने कौंध रही थी। आदमकद आईने में झांकती हाजरा। न आगे कुछ न ही पीछे। एक सूखा तना। शायद मैं उसकी जगह होती तो ऐसी दीन-हीन दशा में हरगिज़ घर से बाहर न निकलती। पर हाजरा के बुर्के ने जैसे उसे उसकी दीन हीन दशा से उबार लिया था। हाजरा के बुर्क़े से मेरी नफ़रत अब ख़त्म हो गई थी। जिस तरह कछुआ अपने खोल में सुरक्षित महसूस करता है। उसका यही सख्त खोल कछुवे के जीवन जीने का आधार बनता है। आज हाजरा भी मुझे किसी कछुवे की तरह लग रही थी। हाजरा का खोल सख्त नहीं था और न ही कड़क था। वह तो उसे किसी मोर पंखों-सा एक अलौकिक सौंदर्य प्रदान कर रहा है। हाजरा अपनी कृशकाया को जिस लबादे से ढक रही थी वही आवरण उसका बाहरी सौंदय बन गया था। उसकी ताकत, उसका आत्मविश्वास। ऐसा नहीं है कि अपनी इस अवस्था में उसने बाहर संघर्ष नहीं किया होगा। पर परिस्थितियों से उबरने के लिए उसका खोल ही उसका कारगर हथियार बन गया था।
समय बीतता गया हम लोगों का ग्रेजुएशन पूरा हो गया। कुछ साथियों ने ग्रेजुएशन के बाद ही पढ़ाई को न कह दिया। उसमें एक हाजरा भी थी। पता नहीं लास्ट एक्ज़ाम के दौरान वह कुछ अजीब सी पेशोपेश में रहने लगी थी। कभी ख़ूब कूदती मचलती, हंसती गाती। और कभी एकदम खामोश वीरान-सी हो जाती। उड़ते हुए कानो में एक बात पड़ी जिस पर पहले पहल तो मुझे यक़ीन नहीं हुआ
“हाजरा को प्यार हो गया है एक लड़के से” किसी ने बताया।
“प्यार और हाजरा को झूठ। ऐसा हो ही नहीं सकता।”
“क्यों नहीं हो सकता?”
“वो तो बुर्क़े में रहती है भला वो प्यार कैसे कर सकती है।”
“क्यों? क्या तुम्हें एक स्त्री दिखाई नहीं देती उस बुर्क़े के अंदर।”
“नहीं ऐसा नहीं है मतलब हाजरा तो बुर्क़ा पहनती है तो फिर कोई सब देख भाल कर ही तो इश्क़ करेगा।”
“बुर्क़े से इश्क़ का क्या ताल्लुक, बुर्के के अंदर धड़कता तो दिल ही है न?
“क्या बुर्के वालियों को इश्क़ करना मना है? बुर्क़े वाली प्यार नहीं कर सकती?”
दरअसल मैं दोस्त से कहना चाहती थी कि हड्डियों के ढांचे-सी हाजरा किसी लड़के को अपनी ओर कैसे आकर्षित कर सकती है। क्या इश्क़ करने वाले ने उसे बिना बुर्के के देखा भी है या नहीं? पर कह नहीं पाई।
लेकिन मुझे हाजरा के प्रति अपनी सोच बड़ी बचकाना लगी। प्यार का बुर्क़े से क्या ताल्लुक। बुर्का है कोई बेड़िया थोड़ी है जिससे पहनने वाला प्यार नहीं कर सकता। बहुत ज़्यादा मज़हबी या अल्लाह वाली भी तो नहीं थी हाजरा। उसने मुझे खुद बताया था कि वह रोज़े नमाज़ की पाबंद नहीं है। औरतों के पर्दे वाले सवाल पर मैंने कभी उसे परदे की हिमायत करते न देखा न सुना। बस वह एक ही बात बार बार कहती-
“अरे भाई जिसे पहनना है उसे पहनने दो, जिसे नहीं पहनना उसे ज़बरदस्ती मत पहनाओं।”
वैसे भी पर्दा सिर्फ़ हाजरा के जिस्म पर था। दिल या दिमाग पर नहीं। पर्दा न तो उसे बैडमिंटन खेलने से रोक आया न ही क्लास में गीत गुनगुनाने से। फिर भला इश्क़ करने से कैसे रोकता। अगर वाकई कोई लड़का हाजरा को प्यार करता है तो वह उसका प्यार सच्चा है। उस लड़के ने हाजरा के बाहरी शरीर से प्रेम नहीं किया है बल्कि उसकी आत्मा से प्यार किया है। वैसे भी सच्चा प्यार जात-पात, अमीर-ग़रीब, गोरा-काला, मोटा पतला वगैरह नहीं देखता।
ख़ैर हम लोगों ने भी हाजरा के प्यार को स्वीकार कर लिया और यह भी कि एक बुर्के वाली प्यार भी कर सकती है। कुछ दिनों के बाद जो खबर मिली उससे तो हम क्या उसके मां-बाप तक सन्न रह गए। हाजरा ने घर से भाग कर शादी कर ली है वो भी एक हिंदू लड़के से। ताना फ़जीहत गाली गलौच पता नहीं फिर क्या क्या हुआ कुछ याद नहीं। मां-बाप ने बेटी से रिश्ता खत्म कर लिया। और हम दोस्तों से ख़ुद हाजरा ने। उस दिन के बाद हाजरा ने कभी मुझसे मिलने या फोन पर बात करने की कोशिश नहीं की। वह अब अपनी ही दुनिया मे मस्त थी। लेकिन हाजरा के जिस्म पर अब बुर्क़ा नहीं था।