कहानी संग्रह-अनकही
कहानी संग्रह-अनकही
लेखक-आदरणीय डॉ अखिलेश चन्द्र
प्रकाशन-आयन प्रकाशन(महरौंला,नई दिल्ली)
पृष्ठ-१२४
कुल कहानियां-११
कीमत-२६०
समीक्षक -राकेश चौरसिया
मो.-9120639958
प्रस्तुत “कहानी संग्रह “अनकही” के माध्यम से लेखक आदरणीय “डॉ.अखिलेश चंद्र” जी ने कई विषयों को एक साथ समेटने का प्रयास किया है। साहित्य के माध्यम से समाज के अच्छाइयों और बुराइयों पर प्रकाश डालना एक साहित्यकार का प्रथम कर्तव्य है। प्रस्तुत कहानी संग्रह के लेखक आदरणीय “डॉ अखिलेश चन्द्र” जी का नाम किसी से छिपा नहीं है, न ही किसी परिचय के मोहताज हैं। आपका जन्म “जौनपुर” जनपद के “प्रेमराजपुर” ग्राम में हुआ है, पर आप “आजमगढ़” की मिट्टी से बहुत ही आत्मीयता के साथ जुड़े हुए हैं। आप “श्री गांधी पी.जी. कॉलेज मालटारी” में “प्रोफेसर” के पद पर कार्यरत हैं। आपके शब्दों का चुनाव, उसका मूल्यांकन, रखरखाव इतना सार्थक है, कि किसी भी दृष्टिकोण से उपयुक्त है।
प्रस्तुत “कहानी संग्रह” “अनकही” के लेखक आदरणीय “डॉ अखिलेश चन्द्र” जी का लेखकीय क्षेत्र में बड़े योगदान के साथ-साथ विशेष स्थान व विशेषताएं है, जो अपनी परिकल्पनाओं को कहानी रूप देने में माहिर हैं। प्रस्तुत “कहानी संग्रह” के प्रत्येक कहानी के “कथानक” को इतनी सुसज्जित ढंग से आपने प्रस्तुत किया है, कि कहानी के साथ-साथ पाठक की रुचियां भी बढ़ती जाती है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है, यही वास्तविकता है। जो इन्होंने महसूस किया,वही लिख दिया। प्रस्तुत कहानी संग्रह में प्रत्येक कहानी किसी न किसी रूप में हमारे जीवन से जुड़ी हुई है, जो हमें जीवन के मूल्यों, कर्तव्यों और जीवन जीने की कला का बोध कराती है। इसमें प्रत्येक कहानी को “लेखक” ने स्थिति और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए, कहानी के अनुरूप भाव व प्रभाव प्रवाहित करने में बड़ी सफलता प्राप्त की है। जहां हर कहानी अपनी परिस्थिति को खुद ब खुद बयां कर रही है। जिसका हमारे जीवन पर सकारात्मक प्रभाव देखने को मिलेगा। योजनाबद्ध तरीके से लिखी गई कहानियों में अनावश्यक शब्दों से परहेज किया गया है।
प्रस्तुत कहानी संग्रह का “अनकही” नामक शीर्षक, इस कहानी संग्रह के लिए इससे उपयुक्त कोई और “शीर्षक” हो भी नहीं सकता, जिसे इस पुस्तक में पहली ही कहानी के शीर्षक के रूप में भी सम्मिलित किया गया है, लेखक ने इसे बड़ी मार्मिक तरीके से प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। “भ्रूण हत्या” पर आधारित यह कहानी इतनी सटीक बैठती है, कि इससे अच्छा कोई क्या लिखेगा। इस कहानी में “राकेश” नायक और “आशा” नायिका की भूमिका में हैं। इस कहानी के विषय का चुनाव ही कहानी की पूर्णता का संदेश देती है। क्रम बद्ध इस कहानी में नायक और नायिका को जिस विषय पर उद्बोधन के लिए “बेस्ट कपल” के “खिताब” से नवाजा जाता है, वही विषय ही उनके गले का फांस बन जाता है। इस कहानी की भूमिका ही कुछ ऐसी है कि पढ़ते वक्त हृदय झकझोर उठता है। अपनी मां “चिन्ता” के दबाव में “राकेश” अपने पत्नी “आशा” के गर्भ में पल रही बच्ची का “एबार्शन” कराने का असाधारण निर्णय तो ले लेता है। तत्पश्चात वह मैडम से मिलकर किसी को न बताने के शर्त पर “एबार्शन” कराने के लिए कुछ पैसे के लालच में तैयार हो जाती है। प्रस्तुत कहानी में गर्भ में पल रही बच्ची सबको बारी-बारी से कोसती है, धिक्कारती है। ठीक उसी समय जिस समय “एबार्शन” की प्रक्रिया शुरु होती है । जहां “आशा” के “भ्रूण” में पल रही “बच्ची” के द्वारा एक अजीबो गरीब वार्तालाप होता है। जब “डॉ रश्मि” ने “आशा” को एबार्शन से जुड़ी दवाईयां दी एवं सुई लगाई , आशा के गर्भ में पल रही बच्ची का असमय संवेदना से संवेदनाशून्य में जाना बहुत ही त्रासदीपूर्ण प्रक्रिया है। जिससे वह अजन्मी बच्ची होकर गुजरती है। जब तक उसकी संवेदना जिंदा रहती है वह अपनी एक-एक रिश्ते से अनकही बात को प्रस्तुत करती है।
सबसे पहले अपनी “मां” से संवेदना व्यक्त करते हुए कहती है कि मां को तो सृजनहार कहा जाता है। मां तुम कैसे हत्यारी हो गयी। तुमने तो बड़ी-बड़ी बातें की थी कि कभी बेटियां तो आधी आबादी का हिस्सा हैं। स्त्री और पुरुष जीवन रथ के दो पहिए हैं। बिना एक दूसरे के यह संसार अस्तित्वहीन हो जाएगा। बेटी बोझ नहीं होती। अगर मुझे ठीक से याद है तो तुमने यही कहां था न मां! जब तुम बेस्ट कपल पुरस्कार में शामिल हुई थी। तुम्हारी इसी सोच ने तुम्हें पुरस्कार जिताया था न मां! तुम्हारी इसी सोच के कारण तुम्हारे गर्भ में आयी कि चलो मैं यहां सुरक्षित रहूंगी। अभी ठीक से मेरा विकास भी नहीं हुआ और तुमने राजनीति की तरह अपने व्यवहार में बदलाव कर दिया। राजनीति तो मैं नहीं जानती, परंतु मेरे साथ तुमने बड़ी राजनीति खेली है मां! मैं तो एबार्शन की प्रक्रिया में आ चुकी हूं, अब तुम इसे रोक भी तो नहीं सकती। क्योंकि मेरे एबार्शन का काउंट डाउन तुमने शुरू कर दिया है मां! मैं तो तुम्हारे दिल का टुकड़ा हूं, तुम्हारे रक्त से मैं सीची जा रही थी। तुम्हारे अस्तित्व में अपना अस्तित्व खोज रही थी। मैंने सोचा था तेरे आंगन में किलकारियां मारूंगी! तुझे ममता के शीतल छांव से भिगोऊंगी। जब तुम कभी बहुत तनाव में रहोगी तो तेरा सर दबाऊंगी। तेरी हर बात बिना तर्क किये मानूंगी। मुझमें इतनी सामर्थ्य थी कि तुम जो कहती मैं वह करके दिखाती। तुम्हारे घर की शोभा बन जाती। जो तुम पहनाती मैं वो पहनती मां! हां, मुझे चूड़ियों का बहुत शौक है मां! कान में इयररिंग, नाक में कील, हाथ में मेहंदी, पांव में महावर, तरह-तरह से बाल सवारना, शीशे के सामने खुद को देखकर इतराना, नाखून में नेल पॉलिश लगाना मुझे बहुत अच्छा लगता है। मां! क्या-क्या बताऊं? मुझे बचपन से लेकर अपनी हर उम्र के कपड़े पहनना बहुत अच्छा लगता है मां!जानती हो, जब मैं सज कर शीशे के सामने खड़ी होती तो मुझे लगता कि मैं ही पूरी दुनिया में सबसे सुंदर हूं। मुझे तितलियों के पीछे भागना बहुत अच्छा लगता है। बारिश में कागज की नाव बनाकर पानी में बहाना मुझे बहुत अच्छा लगता है। बारिश में भीगना जैसे मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। परंतु भिगाया तुमने भी मुझे! बारिश के पानी से नहीं जहरीली दवाओं और विषैली सुईयों से मुझे बहुत दर्द हो रहा है मां। मैं इससे छुटकारा पाना चाहती हूं पर कैसे, अब तो बहुत देर हो चुकी है। आगे और धिक्कारती है और कहती है- तुम कुछ बोलती क्यों नहीं हो मां! तुम आज नहीं बोलोगी क्योंकि कहने का दिन मेरा है, तुम अपराधी हो। सिर्फ सुनो! मुझे साइकिल चलाना पसंद है। दो चोटी बाल बांधना, आंखों में काजल लगाना, बालों में गजरा संवारना, घर को साफ सुथरा रखना, खाना बनाना, और तो और अच्छे से परोस के खिलाना मेरा नैसर्गिक गुण है मां! तुम तो खुद एक बेटी हो, ये सब गुण तुम्हारे अंदर तो खुद ही मौजूद है फिर तुम क्यों मुझे दुनिया में आने से रोक रही हो? सोचो, यदि तुम्हारी मां ने तुम्हें इस दुनिया में न आने दिया होता तो तुम आज जो हो क्या तुम बन पाती? पापा का घर कैसे बसता, बैंक में जॉब कौन करता, नाना के घर लाखों खुशियां कौन देता। होली, दिवाली, दशहरा मेरे बिना सब अधूरा है मां! वैसे भी मैं तुम्हारे घर तो मेहमान के रूप में आ रही थी। शादी पूर्व तक तो मैं तुम्हारे साथ रहती फिर कभी-कभार आना होता वो भी तब जब मेरा पति मुझ पर एहसान करता अन्यथा ससुराल में तरस-तरस कर तुम्हारी सलामती की दुआएं मांगती। आगे कहती है कि हमारे साथ तो मैचिंग कुछ भी नहीं होता- मेरे शौक कुछ और मुझसे कराया कुछ और जाता है, पढ़ना मुझे कुछ और है पढ़ाया कुछ और जाता है, खेलना मुझे कुछ और है खेलाया कुछ और जाता है, खाना मुझे कुछ और है खिलाया कुछ और जाता है, शादी पसन्द की कर लूं तो जबरन ऑनर किलिंग में मुझे मार दिया जाता है। शादी आपकी पसंद से करु तो मनपसंद दूल्हा नहीं मिलता है। शराब और व्यसन से मुझे सख्त नफरत है परंतु पूरी जिंदगी इन्हीं व्यसनधारियों के बीच में मुझे घुटना पड़ता है। दहेज की वेदी पर सदियों से मुझे ही चढ़ाया जाता रहा है। अगर किसी कारण बस विधवा हो जाऊं तो सारा दोष मेरे ऊपर मढ़ दिया जाता है जैसे विधवा मैं जानकर बनी हूं। हर कोई मुझे घूर के देखता है पर मुझे बुरा लगता है। सदियों से बलात्कार की शिकार होती आयी हूं। मुझे उस पर अपराध की सजा दी जाती है जिस अपराध के लिए मैं कहीं से भी दोषी नहीं हूं। बल्कि मेरा अपराधी सरेआम घूमता है।
आगे बच्ची कहती है कि- “कुछ बात पापा से भी करनी है” पापा! आपने तो कहा था कि “कन्या आंगन की शोभा होती है” आपने तो अपने आंगन तक मुझे पहुंचने ही नहीं दिया। कम से कम अपना आंगन मुझे देखने तो देते। बेटी तो पापा का गुरुर होती है, पापा ने तो अपना गुरुर तोड़ दिया। जानते हैं पापा! आपके कंधे पर चढ़कर खेलना, आपकी पीठ पर बैठकर घोड़े की तरह सवारी करना, बाजार की हर चीज पर अपना हक आप के माध्यम से समझना जानते हैं पापा, मैं आपसे इतना प्यार करती हूं कि पूरी दुनिया एक तरफ हो जाए और दूसरी तरफ मेरे पापा और मुझे चयन को कहा जाए तो मैं पूरी दुनिया छोड़ आप का चयन करूंगी। पर आज जो पीड़ा मैं सह रही हूं उसमें आप भी बराबर के दोषी हैं पापा। आप मेरे प्रति इतनी निर्दयी कैसे हो गये? एक बात मम्मी-पापा आपसे संयुक्त भी कहना चाहूंगी कि मैं भगवान से निवेदन करूंगी कि आप जैसे सही निर्णय न लेने वाले मम्मी- पापा के बीच में हम जैसे बच्चे या बच्ची को जन्म लेने के लिए ना भेजें।
इसके बाद भी बच्ची नहीं रुकती है- वह अपने दादी-दादा को कोसने के बाद डॉ साहिबा को भी कोसते हुए कहती है- डॉक्टर साहिबा आप तो स्वयं एक नारी हैं। दो पुत्रियों की मां भी हैं। थोड़े से पैसे के लिए आपने पूरी नारी जाति को संसार से खत्म करने का बीड़ा उठा रखा है। जरा सोचिए, अगर आप के मां बाप ने आप को जन्म न दिया होता तो क्या आप इस दुनिया में आती? कहां जाता है “डॉक्टर भगवान का दूसरा रूप है” आपसे मेरा कराह भरा अन्तिम विनम्र निवेदन है कि लालच छोड़, अपनी जाति की हत्या न करें। स्त्री देश की, समाज की संसार की, सबसे बड़ी नेमत है, उसकी हत्या करके अपने कुल का विनाश मत करें। हो सके तो भगवान द्वारा दी गयी नन्हीं सी जान, जिसे कन्या के रूप में जन्म लेकर संसार में सृष्टि का दायित्व मिलने वाला है, उसे संसार में आने दे और संसार को उसके नारीत्व गुण से सिंचित करने दे। अब मेरे अंग-अंग के टुकड़े-टुकड़े होने ही वाले हैं इसलिए अन्तिम बेहद दर्द के साथ कराह भरा-अलविदा!”। इन्हीं शब्दों के साथ आवाज आनी बंद हो जाती है, शायद इसलिए कि एबार्शन की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है।
प्रस्तुत “कहानी संग्रह” “अनकही” पाठकों को सौप कर आप ने बड़ा ही नेक व सराहनीय कार्य किया है। इस कहानी की वजह से अगर एक भी जीवन बच गया तो वो सौ पुण्य के बराबर है क्योंकि एक भ्रूण हत्या सौ हत्या के बराबर होता है। इस कहानी की समीक्षा लिखना किसी के लिए भी आसान नहीं है, जहां एक-एक शब्द सीधे कलेजे पर वार कर रहे हो। इस कहानी का”सुखद”अंत यह रहा कि”राकेश”और “आशा” के लाख चाहने के बाद भी उन्हें संतान सुख फिर कभी प्राप्त नहीं हुआ। जिस तरह से विक्षेप होती शरीर अपने रिश्ते में ही जीवन तलाशने के लिए संघर्ष कर रही थीं, ठीक उसी तरह मेरी लेखनी भी असहज एवं विचलित हो रही थी। इस तरह की विषयवस्तु चुनने व समाज को समर्पित करने के लिए आपको कोटि- कोटि धन्यवाद।
लेखक आदरणीय “डॉ अखिलेश चन्द्र” जी ने प्रस्तुत कहानी संग्रह “अनकही” में जितनी कहानियों को सम्मिलित किया है, सारे ही कहानियां हृदय स्पर्शी है। अमीरी-गरीबी तथा रुढ़िवादी परम्पराओं के “माया जाल” ने समाज में इस तरह से पैर पसार रखा है, जिसे लेखक ने प्रस्तुत करके यह भरपुर साबित करने का सार्थक प्रयास किया है कि आज के परिवेश में उच्च-नीच,अमीर-गरीब तथा जाति-पांति का कोई महत्व नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व ही उसका मूल पहचान है। प्रस्तुत “कहानी संग्रह” की प्रत्येक कहानी शिक्षा प्रद एवं मार्मिक है, अगर हम इसे प्रेरणा स्वरूप ग्रहण करें तो हमारे जीवन में कुछ हद तक परिवर्तन जरूर हो सकता है- चाहे वो हरिया का सूखा के कारण अपना घर और बकरी बेचकर रोज़ी- रोटी के लिए गांव से शहर को पलायन करने की स्थिति हो। चाहे “चंद्रकला” गरीब मोची परिवार से होने के बावजूद खुद तो पढ़-लिख नहीं सकी लेकिन शादी बाद अपने पति को खुद मेहनत कर के पढ़ा-लिखा कर उसे “प्रिंसिपल” बनाने के सपने को पूरा करती है। जिसके लिए उसे रोज़ अपनी जेठानी की ताने सुनने पड़ते थे।
अगले ही कहानी “अंतर्द्वन्द्व” में द्वंद की पराकाष्ठा तब उत्पन्न होती है, जब “मातादीन” अपनी आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने के बावजूद भी बेटे “गयादीन” को पढ़ा-लिखा कर “आई.ए.एस” त़ो बना दिया, पर “गयादीन” बच्चों के बहुत कहने के बाद भी मोची का काम नहीं छोड़ा। एक बार जब आपातकालीन स्थिति में जिलाअधिकारी बेटे की नियुक्ति उसी जिलाअधिकारी कार्यालय में होता है, जहां उसका पिता “गयादीन” जिलाअधिकारी कार्यालय के सामने मोची का काम करता था। इस कार्यालय में कार्य भार संभालने के बाद ही “मातादीन” और “गयादीन” दोनों के बीच “अंतर्द्वन्द्व” की स्थिति पैदा होती है कि “मातादीन” मोची का काम छोड़े या “गयादीन” तबादला करा लें।
आप्रेशन के दौरान “डॉक्टर” के अज्ञानता और लापरवाही की वजह से “धनिया” की जान चली गई, जोकि कोमा की स्थिति में “आईसीयू” में भर्ती होने के तीन दिन मरे होने के बाद भी जिस तरह “हास्पिटल प्रशासन” के अमानवीय ढंग से लाखों की वसूली की गई।बाद में “पोस्ट मार्टम” रिपोर्ट के आधार पर डॉक्टर पर सख्त कार्रवाई करते हुए उसे “सस्पेंड” कर दिया गया तथा “नर्सिंग होम” सील कर दिया गया। ऐसी घटनाएं हमें आम तौर पर कभी-कभी देखने को या “न्यूज पेपर” के माध्यम से पढ़ने को भी मिल जाता है।
“राजीव” अपने कर्मों का सजा पाते ही आज माता पिता को “वृद्धाश्रम” पहुंचाने और एक बेटे की चाहत में “तीन बेटियों” की “भ्रूण हत्या” कराने की जघन्य अपराधों की सजा देख उसे अपने किए गलतियों पर पछतावा हो रहा था। जिसमें उसकी बीवी भी बराबर की दोषी है। “राजीव” ने इस बात को कुबूल किया कि हमने जो पूर्व में गलती की थी यह उसी की पुनरावृत्ति है। हम दोनों को भी इस अवस्था में “वृद्धाश्रम” ही नसीब हुआ। जब यह घटनाक्रम प्रासंगिक सिद्ध हुआ तो हमारे वंश में भी एक अंश आया है जो उसे भी यहीं पहुचायेगा ऐसा लगता है।
प्रस्तुत “कहानी संग्रह” में एक बड़ी ही उत्कृष्ट कहानी “हंसुली” है, जिसे पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने समाज में हो रहे गतिविधियों को कितनी नजदीक से पढ़ने का प्रयास किया है। हमारी सोच, हमारी विचार धाराएं, रुढ़िवादी परम्परा ये किस तरह से मनुष्य के हृदय तल पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफल है? जिससे हमें पहले भी, अब भी बाहर निकल पाना आसान नहीं है। लेखक ने किस तरह से इस कहानी के मार्मिकता से हमें रूबरू कराने का प्रयास किया है। “हंसुली” एक ऐसे गरीब परिवार की कहानी है जोकि अपने रूढ़िवादी परंपराओं के लिए परिस्थितियों को आईना दिखाती है। उसी परंपराओं को तोड़ने का एक अथक प्रयास भी किया जाता है। “हंसुली” आदरणीय “डॉ अखिलेश चन्द्र” जी का एक ऐसी कहानी है जोकि समाज के गतिविधियों का बड़ी ही बारीकी से संस्मरण कराती है और समाज में पल रहे कूचलन पर व्यंग कसती है।”माया” ने तो इकलौती बहू होने के नाते पुश्तैनी निशानी “हंसुली” को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली, लेकिन “माया” अपने दोनों बहुओं को मना न पाने की वजह से यह मामला पंचायत में जाता है। जिसमें “माया” की बड़ी “बहू रीता हंसुली” पर अपना और “छोटी बहू नीता” अपना हक मानती हैं। लेकिन जब पंचायत में इस बात पर फैसला हो जाता है कि “हंसुली” छः छः माह दोनों बहुओं के बीच में रहेगी, तब “माया” ने पंचायत में एक यह भी प्रस्ताव रखकर सभी को चौका दिया कि संपत्ति के बंटवारे के बाद हम दोनों का भी बंटवारा कर दिया जाए, कि हम दोनों किसके पास और कैसे रहेंगे। तब पंचायत ने बड़ा ही सूझबूझ का परिचय देते हुए एक ऐसा फैसला सुनाया कि जैसे “हंसुली” छः छः माह दोनों “बहुओं” के बीच में रहेगी वैसे ही जिस छः माह “हंसुली” जिसके पास रहेगी मां “माया” और पिता “बांके” भी उसी के साथ क्रमशः छः छः माह रहेंगे। इस फैसले के बाद “अरुण, वरुण, रीता, नीता” ने समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया। इस प्रकार परिवार में क्रमशः छः छः माह तक “हंसुली”, “माया और बाके” का स्थानांतरण “रीता और नीता” के बीच तब से अब तक जारी है।
यह जरूरी नहीं है कि कोई घटना खुद पर घटित हो तब हम सीख लें। हमारी समझदारी तो तब है जब घटना किसी पर घटे और सबक हम लें। इसी में भलाई है।आपका यह “कहानी संग्रह” अनकही” नई-नई कीर्तिमान” स्थापित करें तहे दिल से आपको इसके लिए “बधाई एवं शुभकामनाएं”। जहां कहानियों का चुनाव व संयोजन इतना बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
दिनांक -05/02/23