कहानी मूंछों की
हास्य कविता छंदमुक्त
कैप्टन हमिन्दर
साहब को
था अपनी
मूंछों पर घमंड बहुत
हैं नहीँ किसी की
उनकी जैसी मूंछ
बैठते जब स्टूल पर
दूर तलक
जाती उनकी मूंछे
कैप्टनी सुखविंदर
भी थी परेशान
बैठते जहाँ हमिन्दर
हांकते ढीगें
अंग्रेजों के जमाने की
एक दिन चली चाल
सुखविंदर ने
बेटे को लगाई
लम्बी मूंछे
आई ले कर चुपचाप
हमिन्दर के पास
जब टकराई मूंछे
बाप बेटे की
छिप गयी वह पीछे
हंसीं छुपा नहीं पायी
सुखविंदर
दूर हो गया
घमंड हमिन्दर का
कैप्टन साहब आ गये
अंग्रेजों से
हिन्दुस्तान के जमाने में
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल