Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
25 Jun 2023 · 19 min read

सरस्वती पूजा में प्रायश्चित यज्ञ उर्फ़ करेला नीम चढ़ा / MUSAFIR BAITHA

बिसेसर को त्योहारों में सबसे प्रिय था तो सरस्वती पूजा। और हो भी क्यों न, वह साक्षात् सरस्वती पुत्र जो ठहरा, खुद की नजरों में, स्कूल भर की नजरों में! और इस वर्ष तो यह मनभावन त्योहार बहुत कुछ विशेष लेकर आया था बिसेसर के लिए। स्कूल की चली आ रही परंपरा के मुताबिक दसवीं कक्षा के अव्वल छात्र को पूजा पर बैठना था। अपनी बारी के आन पड़ने से वह काफी रोमांचित था। कईएक दिन पहले से ही वह उन सुखद लम्हों की आमद के बारे में सोच सोच कर रोमांचित था। उसके लिए एक पल का इंतजार जनमों की प्रतीक्षा की कचोट दे रहा था। खैर बेसब्र प्रतीक्षा की घड़ी समाप्त होनी थी, हुई भी और वह स्वप्न पल भी आया जरूर, पर यह क्या, इन लम्हों में बिसेसर के जज्बात को सहलाने का कतरा भर सामान न था। थी तो बस उम्मीदों, आकांक्षाओं के महल को एक झटके में हहाकर ढहा देने की ताकत रखनेवाली खबरिया झंझावात, कि चतुर्वेदी प्रिंसिपल सर ने खुद ही इस बार पूजा पर बैठने का फैसला किया था। इस बार परंपरा में अपवाद पैदा करना निहायत जरूरी हो गया था! इस बार परंपरागत तौर पर पूजा पर बैठने का अधिकारी अपरंपरागत आगत एक ‘हरिजन’ जो ठहरा! यानी इस बार के अभ्यर्थी का वर्णाश्रम पूज्य परंपरा के अनुकूल न था, अधम था। शायद गुरु द्रोणों ने हिसाब यह भी बिठाया था कि एक दलितवंशी होकर हर कक्षा में प्रथम स्थान पर काबिज होते रहने का पुरस्कार तो इस कलजुगी एकलव्य को मिलना ही चाहिए! इस केंद्रीय विद्यालय के पूज्य! इतिहास में यह अघट पहली बार घटा था कि कोई अछूत जात हर कक्षा में अव्वल आकर एक नई परंपरा उगा गया था। गोया, बिसेसर द्वारा उगाई गई नई परंपराओं पर संस्कारक विराम लगाने के लिए भी अब कोई नई परंपरा उगाना प्रिंसिपल चतुर्वेदी ने जरूरी समझा था। पर इन बातों, बड़ों की बड़ी बातों से बिसेसर अबतक बिल्कुल अनजान था।
आसन्न धर्मसंकट से पहले प्रिंसिपल तो घबरा ही गये थे। ऐसे में हमेशा की तरह इस संकट एवं दुविधा की घड़ी में उन्हें अपना संकट मोचक एवं चाणक्य की दोहरी भूमिका निभानेवाले सिंह सर याद आए। श्रीसंत सिंह सर ने चुटकी में समस्या हल कर दी थी। उनकी रणनीतिक सलाह पर प्रिंसिपल सर ने सुदर्शन चक्र चलाकर विद्यादेवी की समस्त परंपरागत महिमाओं को खंडित होने से बचा लिया था! ऐसा धर्मरक्षक कवच तो देवी को खुद भी प्रिय था! जैसे कि मनुस्मृति की धार्मिक कोख से निकली यह सूक्ति कि यदि कोई शूद्र या स्त्री वेदवचन सुनने का लोभ संवरण न करे तो उनके कानों में गर्म पिघलता शीशा भर कर हर-हमेशा के लिए बहिर बना देना ही उचित है।
इधर बिसेसर था कि प्रिंसिपल सर और सिंह सर की मसीही शख्सियत और नेकनीयत पर शक-शुबहा करने की सोच भी नहीं सकता था। हरियाली में छुपे घास को पहचानने में तो सयाने लोग भी गच्चा खा जाते हैं किशोर वय बिसेसर की अभी औकात ही क्या थी! प्रिंसिपल चतुर्वेदी वैयक्तिक रुचि के कारण उसकी कक्षा में संस्कृत का पीरियड खुद लेते थे और अपने इस अज्ञात कुलशील शिष्य की देवभाषा(!) संस्कृत की पटुता से गहरे प्रभावित थे। उसके इस गुण व अन्य प्रतिभाओं का सार्वजनिक मंचों से भूरि-भूरि प्रशंसा भी किया करते थे। इस तथ्य की गवाही देती एक घटना का संदर्भ लेना यहां कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक होना चाहिए।

विद्यालय का वार्षिकोत्सव समारोह चल रहा था। समारोह के मुख्य अतिथि थे स्थानीय जिलाधिकारी एवं स्कूल के चेयरमैन घुरफेकन डोम। छात्रों के बीच पारितोषिक वितरण उन्हीं के हाथों किया जाना था। पारितोषिकों की अनेक कैटेगरी- खेलकूद, भाषण, वाद-विवाद, अन्त्याक्षरी, पेंटिंग, कैलिग्राफी (सुलेख) और डांस समेत तकरीबन दर्जन भर पुरस्कारों के प्रथम स्थान पर चुने गए विजेता के रूप में जब बिसेसर को मंच पर बार-बार बुलाया गया तो पुरस्कार प्रदान करते उस आइएएस अतिथि मान्यवर डोम से बिसेसर को टोके बिना नहीं रहा गया। उन्हें अपने गौरवशाली कैरियर के स्कूली दिनों की सुघड़ यादें चलचित्र की भाँति मस्तिष्क में घूम ताजा हो आने लगीं। समारोह में अलग दपदपाते सितारा बिसेसर मांझी के रूप में उन्होंने खुद को खड़ा पाया। मुख्य अतिथि के मनोभावों और जिज्ञासाओं को ताड़ बगल में बैठे प्रिंसिपल सर कुछ देर तक उनके कान में फुसफुसाते रहे थे। उन्होंने मुख्य अतिथि को इस विलक्षण प्रतिभा के धनी बालक की सर्वथा विपरीत परिस्थितियों के बीच चमक बिखरने के बारे में चंद सूत्रात्मक सूचनाएं दी थीं। यह उन्होंने वैसे ही रखा था जैसे कि किसी समाचार बुलेटिन के मुख्य समाचार में कैप्सूल सरीखा रखे जाते हैं। और फिर, मुख्य अतिथि ने उस वीर बालक की पीठ ठोंककर उसकी बेहद चमकदार उपलब्धियों के लिए भरपूर शाबाशी दी थी। यह बात दीगर है कि पीठ पीछे यही प्रिंसिपल मुख्य अतिथि की ‘हरिजन-स्टेटस’ को संज्ञान में रखकर अपने मनभावन (कह लें मनुवादी) सहकर्मियों से एकांतिक वार्तालाप में कई-कई मौकों पर यह सर्टिफिकेट बांटते पाए गए थे कि प्रतिभाशून्य(!) होने के बावजूद आरक्षण की सहूलियतकारी सीढ़ी चढ़कर जिलाधिकारी जैसा महत्वशाली और प्रभावकारी पद पा गया है यह डोम।

और रही सिंह सर की बात, तो उनकी भलमनसाहत एवं दरियादिली के क्या कहने! बिसेसर जब छठी कक्षा में ही था तब एक दिन उन्होंने लंच ब्रेक में उससे चापाकल से एक जग पानी भर कर ले आने को कहा था और स्लाइस ब्रेड के दो टुकड़े स्टोव पर सेंक कर मक्खन के लेप से सैंडविच बनाते हुए उसके हाथों में पकड़ाए थे और उसके वापसी के कदम उठने से पहले पूछ भी लिया था- ‘बिसेसर तूने ब्रेड कभी खाया है या नहीं?’ जवाबी स्वर सिंह सर के अनुमान के अनुरूप नकार में ही आया था जो सिंह सर के ब्राह्मणवादी अंतरतम को सुख पहुंचा गया था। बाद को अपने द्विजगुटीय सहकर्मियों से एकांतिक वार्तालाप में कई कई मौकों पर सिंह सर ने अपनी इस दरियादिली का ढिंढोरा भी पीटा था। टोस्ट के स्वाद की बात करें तो सच यह भी था कि अपने क्लास में शैक्षिक या शिक्षकेतर गतिविधियों का बहुविध व सबसे प्रभावी आस्वाद लेनेवाले बिसेसर का शायद ही कोई सहपाठी रहा होगा जिसे इस उम्र में आकर भी ब्रेड-टोस्ट चखने का मौका न मिला रहा हो। शिवपूजन सहाय की कहानी ‘कहानी का प्लाट’ की मुसीबत का गहरे थपेड़े झेलती और टिमटिमाती नायिका भगजोगनी के सन्दर्भ में सृजित मेटाफर गह कहें तो देहाती, दलित और दीन होने की पूंजीभूत स्थिति बड़ी जहरीली होती है! कटु सच्चाई तो यही थी कि बिसेसर के लिए टोस्ट का टेस्ट पाने का यह पहला ही अवसर था। बिसेसर की न में डुली मुंडी को देख भू-तत्त्व सर को अपने इस अन्न-दान पर नाज हुआ! उनके चेहरे पर एक अजीब सी वितृष्णा और तिर्यक सुख-संतोष की लहर तैर गयी थी। पर ऐसे तिर्यक गुरु भावों को पढ़ना तबतक बिसेसर को न आता था। वैसे, आता भी तो वह क्या कर लेता?

कहानी में कैटेलिस्ट रस पाने के लिए जरा इस सिंह सर का एक लघु कैरेक्टर स्केच देख लें। वे पढ़ाते भौतिकी थे पर सदा धोती-कुर्ता के संस्कार में पगने के आदी थे। अपने पढ़ाए-बताए को पूरी कक्षा द्वारा समझ लिए जाने की उनकी एकमात्र कसौटी यह थी कि उनका सुप्रिय स्वजातीय व बिसेसर का कक्षा साथी सुरेश सिंह यदि ‘हां’ कह दे तो किसी सबक को, सबक के किसी भी हिस्से को सब छात्रों द्वारा समझ लिया गया मानकर सर आगे बढ़ जाते थे। शांत, सख्त व अनुशासनप्रिय की छवि गहनेवाले इस गुरु की कृपा से सुरेश शुरू-शुरू में बिना स्कूल का छात्र रहे भी शून्य क्रमांक के साथ लगभग साल भर पढ़ता रहा था, कक्षा की पीरियॉडिक परीक्षाओं में शामिल होता रहा था और विद्यालय के अन्यान्य संसाधनों का भी छात्रोपयोगी लाभ फोकट में या कि नाजायज ही उठाता रहा था, एकदम से एक नियमित छात्र की भांति। बाद में उसका विधिवत भी स्कूल में अपने प्रभाव से नामांकन करवा दिया था सिंह सर ने।

सिंह सर के पढ़ाने का अंदाज बिलकुल बेपरवाह था, निराला था। जब वे क्लास में छात्रों को कोई पाठ डिक्टेट करवा रहे होते थे तो उनकी भंगिमा एक गदहअलसाए एवं निंदातुर व्यक्ति की होती थी। लगभग आंखें मूंदे हुए जमीन की तरफ देखते देखते एक दो वाक्य बोलकर सहसा रुक जाते थे। फिर बीस तीस सेकेंड का मौन बरतने के बाद, पॉज लेने के बाद उनींदे से ही तनिक सिर उचका कर आगे की बात लिखवाते। फिर मौन की मुद्रा में सिर को नवा लेते। यह क्रम घंटी लगने तक बदस्तूर चलता रहता। यानी, पढ़ाते समय लोकल ट्रेन की रुक रुक गति अख्तियार करते। उनकी इस भंगिमा पर लगभग हर छात्र, कूढ़ता झल्लाता, मुस्कियाता, मगर मजाल कि पिनड्राप सायलेंस की बनती इस स्थिति को तोड़ आगे भी बोलने का उनसे कोई निवेदन करता। उनका स्मरण करते स्वर्गारोहण (!) प्राप्त पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की नायाब नींदियाई छवि बरबस याद हो आती है। अटल अपने इस नाजोअदा के धारणकर्ता अकेले-अजूबे राजनेता हो सकते हैं, मुदा, एकेडेमिक-क्षेत्रे इस अनोखी अदा का कापीराइट तो हमारे इस गुरु के पास ही रहना चाहिए!

पूजा की आधारभूमि पर पुनः लौटते हैं। होइहि सोइ जो राम रचि राखा – सनातनियों, ब्राह्मणवादियों, वामियों-प्रगतिशीलों, अर्थात, सबही हिन्दू संस्कारियों के एक से प्रिय पंडित तुलसी का यह दैवी पर्यवेक्षण बेशक एक अनर्गल प्रलाप भर ही है, पर मानो यह उक्ति इस सरस्वती पूजन के संदर्भ में ‘इन टोटो’ अर्थजीवी हो आई। सरस्वती पूजा आरंभ हुई और रामकृपा (नहीं नहीं सॉरी, दुर्भाग्य!) से पूजन के दौरान ही एक अप्रत्याशित घटना घट गयी। पूजी जा रही सरस्वती की मूर्ति का सिर ही अकस्मात टूटकर हवनकुंड में गिर गया। सिर मुड़ाते ओले पड़े थे। साक्षात्! पूजा पर बैठे प्रिंसिपल चतुर्वेदी सर के हाथ पांव फूलने लगे थे। एक पल को वे वज्र निर्वाक् रह गए थे, काटो तो खून नहीं। कौन जाने, कुछ बूंद ही सही, डरे-सहमे प्रिंसिपल सर की पेशाब भी उतर आई हो उस वक्त। उनकी भयाहत दशा देखने लायक थी। किसी आगत-अनागत अपशकुन के भय से कंपकंपी छूटने लगी थी, मानो जड़ैया बुखार ने धर दबोचा हो। आज का मीडिया और सोशल मीडिया सजग दौर होता तो हमारे उत्साही मीडियाकर्मी एवं लोगबाग इस असहज घटना में कोई न कोई अलौकिकता ढूंढ़ निकालते, इस भवतव्य को सरस्वती प्रसाद (सॉरी प्रकोप!) मानते। घटना का प्रकोपी फैलाव देखते ही देखते विश्वव्यापी हो जाता। पर गुजरी सदी के उस ठण्डे समय सन् उन्नीस सौ चौरासी में ऐसा कोई सजग मीडियाई इशारा होना न संभव था, न हुआ!
खैर, अशुभ तो अब घट चुका था। इस अशुभ के परिहार के लिए मंत्रणा टीम इकट्ठी हुई। इसमें हिन्दी अध्यापक योगेन्द्र मिश्र की प्रायश्चित यज्ञ की सलाह पर सहमति बनी थी। समस्याभेदन टीम के वे प्रतिष्ठित सदस्य थे। गोकि उन दिनों हिन्दी एवं संस्कृत शिक्षकों का ड्रेस टिपिकल धोती-कुर्ता हुआ करता था और पतलूनी आग्रह के लोग इन्हें उपहास भाव से धोतीप्रसाद कहते थे। पर इन मिश्र सर का नियमित पहनावा पैंट शर्ट ही था, धोती कुर्ता नहीं। अलबत्ता, संस्कारक चुटिया रखना नहीं छोड़ा था उन्होंने। उनके इस चुनाव को दकियानूसपन एवं आधुनिकता का घालमेल कह सकते हैं आप! वे कद में बहुत ठिगने थे, बमुश्किल पौने पांच फीट के आसपास। दांतों की बनावट ऐसी अनगढ़ छितनार थी कि श और ष के उच्चारण के वक्त उनके मुंह से निकली ऊष्म दुर्गंधयुक्त हवा के शीत्कार के साथ थूक के थक्के पर थक्के भी फुहार की भांति निकलते जाते थे। वे स्कूल की प्रार्थना सभा या समारोहों में अंग्रेजी में बोलते, अंग्रेजी की टांग तोड़कर बोलते। दूसरी ग्रंथि उन्हें अपनी बढ़ती उम्र को लेकर थी। एकमात्र शिक्षक थे जो छात्रों को ‘भाइयो-बहनो’ संबोधित करते ताकि अपने अधिक उम्र के होने और या पिछली पीढ़ी में धकेले जा चुकने के सच का सामना करने से बच सके, बचने का भ्रम पाल सके!
वे घर से निकलते समय अक्सर अपनी पैंट की चेन चढ़ाना भूल जाते थे। इस चलते शिक्षक सहकर्मी यहांतक कि छात्र भी उनसे हंसी-दिल्लगी करने से बाज नहीं आते थे। एक दिन उनके इस भुलक्कड़पन की तो हद ही हो गयी और भारी भद पिट गयी। इस बार भरसक वे चड्डी पहनना भी भूल गये थे। हुआ ऐसा कि क्लास में वे शृंगार रस पर बड़े मनोयोग से व्याख्यान दे रहे थे। जब इस रस की निष्पत्ति को सोदाहरण समझाने के क्रम में कोई कामोत्तेजक प्रसंग की ओर चर्चा चली गयी तो सर के खुले पोस्टआफिस से तन-सरक कर स्याम शिशन बाहर झांकने लगा। अब तो क्लास के सारे लड़के-लड़कियां हत्प्रभ! पर सर थे कि पढ़ाने में मग्न। कक्षा में छात्रों की आपसी बात खुसुर फुसुर से बढ़कर शोर का रूप धरने लगी। लड़कियों का सिर शर्म के मारे नीचे गड़ गया था और चेहरा उत्तम क्वालिटी के सेब की माफिक रक्ताभ हो गया था। ‘फिस्स्स्स्स्’ की फव्वारेदार हंसी के साथ आखिरकार स्कूलभर में शैतान सम्राट का तमगा प्राप्त शोभाकांत पाठक ने सर को अपनी पैंट की जिप की ओर देखने का इशारा कर ही दिया। अब तो सर पानी पानी थे। एक बार जो उनका सिर नीचे गड़ा, गड़ा ही रहा और फौरन चौक और डस्टर टेबल पर पटक घंटी अधूरी छोड़ क्लास से निकल लिए। खबर जंगल की आग बन गयी थी। कई दिनों तक छात्र और शिक्षकों की अपनी अपनी मंडली के बीच यह प्रसंग चटखारा ले लेकर कहा सुना जाता रहा। कोई दो हफ्ते के बाद जाकर ही सर दुबारा स्कूल में नजर आए थे।

हाँ तो इन्हीं नायाब योगेंद्र सर की मंत्रणा पर प्राचार्य ने आनन-फानन में विद्यालय परिसर स्थित अपने आवास पर एक प्रायश्चित यज्ञ का आयोजन करवाने का फैसला किया। इसमें केवल शिक्षक एवं कर्मचारी को ही न्योता गया था ताकि बात ज्यादा न खुले, घर की बात घर में ही रह जाए। बच्चों के पेट में बात नहीं पचेगी, इस बद्धमूल आशंका से छात्रों को इस यज्ञ में प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। पर फिर भी अचाहा होने को टाला न जा सका। हुआ यों कि जब यज्ञ के लिए पुरोहिती की बात चली तो स्वभावतः पहला नाम मोची सर का आया। रामनिहोरा यादव सर ने झट मौका को हाथ में लेते हुए प्रस्ताव कर दिया था कि संस्कृत शिक्षक डा. नकछेदी मोची पूजा का काम करवाएं। मोची सर संस्कृत में पी-एच.डी. थे। शिक्षकों के बीच वे विद्यावाचस्पति नाम से भी भी पुकारे जाते थे, यह उनके संस्कृत-पांडित्य का मान था। उन्हें हिन्दू धर्मग्रंथों के अनेक प्रसंग कंठाग्र थे। सो, यादव सर के उक्त प्रस्ताव को पर्याप्त सर्मथन भी मिला था। पर हेड सर सिराह-बिगरैल बैल की तरह बिदक गए थे। उनका उन्मादी क्रोध कई प्रत्यक्षदर्शियों को सहमा गया था। वे एस. के. मिश्रा सर से यज्ञ के लिए पुरोहितकर्म निबटवाना चाहते थे।

इन मिश्रा सर के ज्ञान गर्व की न्यारी कथा तनिक कहानी रोककर सुना दूं।
मिश्रा जी अंग्रेजी के अध्यापक न होते हुए भी अंग्रेजी पढ़ाते थे। थे तो वे एसएसटी यानी समाजअध्ययन विषय के टीचर पर अंग्रेजी के अपने ज्ञान को बघारने के लिए इस विषय को उन्होंने ऊंची कक्षा में पढ़ाना अपने जिम्मे करवा लिया था, बेचारे संकोची अवर्ण अंग्रेजी शिक्षक सोनफी दास पीजीटी होकर भी छोटी कक्षाओं में ही बझा दिए गए थे। प्रिंसिपल दुलारे इन मिश्रा सर का तन तो विलायती रंग में रंग गया था पर अपने मन को ऐसे आयातित प्रभावों से भरसक बचाए रखा था उन्होंने। वो कह गए हैं न कबीर- मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा…। ठीक यही जी रहे थे वो। बाना कुछ तो पंडित स्टाइल का था कुछ इंगलिस्तानी। वे सिर पर चौड़ी आधारवाली शंक्वाकार लंबी पंडिती चुटिया रखने से गुरेज नहीं करते थे और त्रिदंडी टीका भी धारण करते थे। एक मैथिल पहचान पान खाने की लत की गवाही उनकी पैंट-शर्ट अथवा धोती कुर्ते की ललछौंह छींटें भी देतीं। उनसे बतिआने वालों को भी एकाध लीक पनछींटे पड़ जाने की भरपूर गुंजाईश बनी रहती थी, लिहाजा, उनसे बतियाने वालों के लिए एक सुरक्षित दूरी अख्तियार करना ही ठीक रहता। हर हमेशा पान चाभते, पनबट्टा साथ रखते। हां, अंग्रेजी ज्ञान ने उन्हें इतना भर जरूर संस्कारा था कि वे धोती-कुर्ते के अलावा अपने तन पर पैंट-शर्ट की घुसपैट भी सह ले रहे थे। मजेदार तथ्य यह है कि बच्चों के लिए इनका अंग्रेजी ज्ञान लगभग अबूझ और आतंककारी था। कोई कितना भी सही-सावधानीपूर्वक होमवर्क करके ले जाता, वे अपना अंग्रेजी ज्ञान उड़ेलकर कापी को लाल स्याही से रंग कर दीन-हीन दशा में पहुंचा ही देते। इस मामले में मुकुट शर्मा इकलौता छात्र था जिसकी कापी में लाल स्याही नहीं लगती या फिर इक्की-दुक्की जगह ही लगती। मुकुट जिला मुख्यालय स्थित गोयनका कालेज में अंग्रेजी के ख्यातिलब्ध प्रोफेसर वी.वी.एस. का सुयोग्य पुत्र था। जाहिर है, वी.वी.एस. उनके नाम का शब्दसंक्षेप था। उन्हें अपने कालेज व शहर में ही नहीं इलाके में भी ‘वेरी वेरी स्पेशल’ का सम्मान प्राप्त था। शायद यह बात कहीं न कहीं मिश्रा सर की जेहन में थी जिससे वे मुकुल की कापी पर अपना अंग्रेजी ज्ञान बघाड़ने से बचते थे। शेर भी अपने से सवासेर के आगे अपनी ताकत आजमाने से बचता है! नहीं तो, इस अंग्रेजीदां मिश्रा सर ने एक दफा किसी अंग्रजी निबंध पुस्तक से रट्टा मार एवं बार बार लिखित अभ्यास के बाद लिखे गए ‘डिसिप्लिन’ शीर्षक बिसेसर मांझी के निबंध में भी लाल रोशनाई की आड़ी-तिरछी पिचकारी बना दी थी। इस मर्तबा सर ने उसके निबंध की वाक्य संरचना एवं शब्द विन्यास ही बहुलांश में बदल डाले थे। एक दलित छात्र की दुरुस्त अंग्रेज़ी को भला वे कैसे बर्दाश्त करते! यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि निरा इन मिश्रा सर की अंग्रेजी पढ़ाई पर निर्भर छात्र अंग्रेजी भाषा पर अपना कांफिडेंस जमा ही नहीं सकता था। मिश्रा सर की शिक्षण कला इस मार्के की थी कि महज स्कूल की पढ़ाई के भरोसे रहनेवाला छात्र अपने अंग्रेजी ज्ञान को माप नहीं सकता था, थाह नहीं सकता था कि उसका अंग्रेजी ज्ञान कितना समृद्ध हुआ!

हां तो इन्हीं चामत्कारिक अंग्रेजी प्रतिभा वाले एस. के. मिश्रा सर के पांडित्य पर भरोसा कर हेड चर्तुवेदी सर ने उन्हें यज्ञ संपादन का दायित्व सौंपने का मन बनाया था। फिर, कौआ मयूरपंख लगा कर मोरों की बिरादरी में प्रतिष्ठित हो जाए, भला यह अपारंपरिक मानभंग हेड सर कैसे बर्दाश्त करते? अवर्ण पांडित्य का स्वीकार? वर्णवादी तनों के लिए यह तो डूब मरने की बात होती न? सो, बिन मांगे सलाह देने वालों और यज्ञ में अपनी इच्छा के प्रतिकूल दखल देने वालों की प्रिंसिपल सर ने स्वाभाविक ही खबर ली थी। उन्होंने क्रोध से कांपते हुए चढ़ी त्योंरियों से एक ‘पंथनिरपेक्ष’ निर्देश जारी किया – ‘जिन्हें यज्ञ में भाग लेना है रहें यहां और जिन्हें आपत्ति है, वे अपना रास्ता नापें यहां से। यज्ञ का संचालन मेरे हिसाब से होगा।’ प्रिंसिपल की वर्णगंध से बजबजाती सामंती मंशा पके घाव के मवाद की तरह फूट कर अचानक प्रकट हो आई थी। यह बद्धमूल मानसिकता का अपने सघन आवेग को नहीं सहला पाना था और शराफत के झीने चिकने सुंदर दिखते आवरण को तोड़ नग्न साकार हो जाना था।

*********************************************************************

उधर, इस निर्देश से प्रिंसिपल का छद्म भागा, इधर पिछड़ों-दलितों का आत्मसम्मान जागा। प्रिंसिपल की बातों से मानमर्दित हुए प्रभावित शिक्षक-कर्मचारी यज्ञस्थल से फ़ौरन इकट्ठे ही उठे और चल दिए। उन्होंने प्रिंसिपल के इस भेदभावपूर्ण बर्ताव से मुतल्लिक शिकायत विद्यालय प्रबंधन, केंद्रीय विद्यालय संगठन, नई दिल्ली से कर दी। और इस पूरे प्रकरण पर एक जांच टीम बैठाई गयी, टीम द्विसदस्यीय थी। एक सदस्य केन्द्र, दिल्ली से और एक पटना संभाग से थे। समिति ने घटनास्थल पर पहुंचकर पक्ष विपक्ष, दोनों से शिक्षक-कर्मचारियों की गवाही ली। समिति ने विचार किया कि निष्पक्ष जांच का भ्रम पैदा करने के लिए किसी छात्र से भी पूछताछ की खानापुरी कर ली जाए। इस निमित्त इकलौते छात्र गवाह के रूप में बिसेसर डोम की पेशी हुई। जब बिसेसर के कदम प्रिंसिपल चैंबर की ओर बढ़ रहे थे, जहां केवल जांच टीम के सदस्य बैठे हुए थे, तो बरामदे पर बेचैन चहलकदमी करते प्रिंसिपल को मानो बिसेसर के पांव किसी खूंखार राक्षस के बड़े बड़े नाखून और बेतरतीब बढ़े बालों वाले घातक पांव नजर आ रहे थे जो उनकी ओर ही बढ़े चले आ रहे थे। बिसेसर ने देखा कि प्रिंसिपल की आंखों में भय का साम्राज्य व्याप्त था और निगाहें कातर याचनापूर्ण। मगर बिसेसर को इस भय का सबब क्या मालूम? उसके दिमाग में तो किसी अनजाने मुद्दे पर अनजाने लोगों द्वारा पूछताछ के लिए बुलाए जाने की पहेली ही चक्कर मार रही थी।
‘में आई कम इन सर’, कहकर जवाबी स्वर के आने के बाद बिसेसर कमरे में अभिवादन के साथ दाखिल हुआ तो बगल में लगे सोफे पर बैठने का मौखिक और सांकेतिक, दोनों आदेश मिले। पहले तो वह झिझका, खड़े ही बात करने की अनुमति मांगी, पर दुबारा कहे जाने पर ‘थैंक यू’ कहकर बैठ गया। जांच अधिकारियों ने उसे सहज रहने को कहा। ‘बेटे’ जैसे संबोधनों से सहला-पुचकार कर बातें कीं। प्रिंसिपल के बात-विचार, आचार-व्यवहार के बारे में कतिपय अटपटे से लगने वाले प्रश्न भी किए। मसलन, ‘प्रिंसिपल का तुम्हारे प्रति क्या व्यवहार है’, ‘क्या वे तुम्हारे साथ भेदभाव भी बरतते हैं, ‘तुम्हें वे कैसे लगते हैं’, ‘प्रिंसिपल ने अमुक दिन अपने घर पर यज्ञ वगैरह भी करवाया था क्या’, आदि आदि।
बिसेसर को ये सवाल तब बुझौवल से लगे थे। वह नहीं समझ पा रहा था कि आखिर माजरा क्या है? स्कूल परिसर में किसी यज्ञादि होने की उसे कोई जानकारी नहीं थी। रही प्रिंसिपल के व्यवहार की बात, उसे कभी ऐसा नहीं लगा था कि वे उसके साथ कोई भेद वाला व्यवहार कर रहे हों बल्कि उनसे तो उसे प्रोत्साहन और प्रशंसात्मक बातें ही सुनने को मिलती थीं। इसलिए प्रिंसिपल के चरित्र को बिसेसर ने अपने व्यवहारिक ज्ञान के धरातल पर काफी खरा ही साबित किया। कुल मिलाकर बिसेसर से लिए गए इंटरव्यू के चलते आशंकाओं के विपरीत प्रिंसिपल सर का पक्ष मजबूत ही हुआ। समिति जांच अध्ययन करके चली गयी और उसके प्रतिवेदन में मामले को रफा-दफा करने की सिफारिश हुई। हां, इतना जरूर हुआ, प्रिंसिपल और प्रतिपक्षी दोनों को यह ‘प्रेम पत्र’ दिया गया कि वे आइन्दा ऐसे संकीर्ण मामलों में न उलझें और बच्चों को पढ़ाने की बजाए बे-जगह समय जाया न करें। इस तरह से बोर्ड को नाहक उलझन में डालने पर वे भविष्य में दंडित किए जा सकते हैं। दरअसल, ऐसे जांच निष्कर्षों में सही स्टैंड पर रहने के बावजूद प्रभावित पक्ष का हौसला तोड़ने का संदेश होता है और माद्दा भी। जांच समिति ने लौटने से पहले प्रिंसिपल के अनुनय पर सीतामढ़ी शहर जाकर सीता की कथित जन्मस्थली और वहां बने जानकी मंदिर के दर्शन भी किए। कुछ अन्य सीतामढ़िया सौगातें भी उनकी पोटली में बांध दी गईं।
************************************************************************
कहानी का एक मजबूत पाया सरस्वती पूजा से ठीक पूर्व की रात्रि का भी है। एक ओर स्कूल कैंपस में लड्डू, बुंदिया आदि पूजन सामग्री तैयार करने में हलवाई और कुछ छात्र लगे हुए थे तो दूसरी तरफ चंद छात्र पूजा विषयक अन्य तैयारियों में जुटे थे। यह ठिठुरन भरी सर्दीली रात थी। ठंढ से निजात पाने के लिए लड़कों ने नायाब उपाय किए थे। उन्होंने आग जला ली थी और उसमें टूटी फूटी कुर्सियां, टंबुल, बेंच आदि स्वाहा किए ज रहे थे। धृष्टता और बदमाशी की इंतिहा यह कि कतिपय बिगड़ैलों ने कुछ बिल्कुल दुरुस्त नए-पुराने फर्नीचर भी तोड़ डाले और अंगीठी के हवाले कर आग तापने का सुख लिया था। बाद में इस मजा के लिए निर्दोषों को भी सजा मिली।
सरस्वती पूजा संपन्न हो जाने के बाद का समय पूजा आयोजन में सक्रिय भागीदारी देने वाले छात्रों के लिए अधिक मात्रा और मजे में मिष्टान्न का आस्वाद लेने का अवसर प्रदान करने वाला था। इन छात्रों ने छक कर बुंदिया और लड्डू जीमे। हमारा कथानायक कवि हृदय भी है। उसने कुछ साथियों के आग्रह पर इस स्वादप्रदायक अवसर का एक शब्दमय चित्रांकन भी प्रस्तुत किया। आसु कविता का यह तुकबंदी-अंश खासा छात्रप्रिय हुआ था –
सरस्वती माता बुनिया दाता
खाते खाते पेट अघाता
खाता कोई रौ में शर्त लगाकर
इतना कि हगते पादते थक जाता
कोई अपने पेट में लुढ़क रहे पकवानों को
खूब हंस बोल लोट लोट पचाता

आना पुनि पुनि लौट हे सरस्वती मैया
तू ही हम सब का तारणहार नाव खेवैया

सरस्वती पूजा और प्रायश्चित यज्ञ के निर्बिघ्न नहीं संपन्न हो पाने से प्रिंसिपल सर काफी व्यथित और आक्रोशित थे। इन कांडों को हुए अभी जुम्मा जुम्मा आठ दिन भी नहीं बीते थे कि हरे घाव पर नमक छिड़कने वाला एक और संवाद कोई दूत दे गया था। खबर हुई कि छात्रों ने पूजा की रात कुछ कारगर फर्नीचर भी तोड़ डाले थे। प्रिंसिपल साहब का क्रोध एक बार फिर से जवान हो उठा। उन्होंने इस कृत्य को अनुशासन का बड़ा मामला माना, जो था भी। तुरंत कार्रवाई का फैसला हुआ, लेकिन दोषियों की पहचान आसान न थी। प्रथमदृष्टया, दोषी कोई एक न था, दसवीं के छात्रों की पूरी जमात थी। दोषियों की निशानदेही के लिए बाजाब्ता लिखित सवाल-जवाब किया जाना तय हुआ। प्रश्न पत्र तैयार करने का काम श्रीसंत सिंह यानी भू-तत्व सर ने किया था। चंद सवाल बेहद रोचक थे और कुछ छात्रों के कतिपय जवाब भी। उनका स्वाद आप भी लें। सवालों में ये भी शामिल थे-आग किसने जलाई, कैसे जलाई, फर्नीचर किसने तोड़े, कैसे तोड़े, क्यों तोड़े? सरल-सहज दिखने वाले अधिकांश प्रश्न उत्तर करने में जटिल और फंसने-फंसाने वाले थे। प्रश्नों की प्रकृति प्रायः वस्तुनिष्ठ थी, उत्तर ‘हां’ या ‘नहीं’ अथवा एक या दो वाक्यों में करने थे। दोषारोपण में जनतांत्रिक स्पेस था, आरोपी दसवीं के सारे छात्रों को एक से प्रश्नों के लपेटे में लिया गया था। दसवीं में पढ़ने वाले बिसेसर एवं अन्य अनुशासित या मेधावी माने जाने वाले छात्रों को भी इन सवालों से मुठभेड़ करना था। प्रश्नावली हल करने के लिए परीक्षा की स्थितियां रखी गयी थीं। पर्याप्त दूरी पर छात्रों को बिठाया गया था। लिखने की समय सीमा मुकर्रर थी और हर पंक्ति में शिक्षक-गार्ड की निगरानी व्यवस्था थी ताकि आपसी पूछताछ, ताक झांक या नकल की गुंजाईश बाकी न रहे, जवाब से दूध का दूध और पानी का पानी हो सके। शोभाकांत झा, जो पढ़ाई को छोड़ हर जगह मन रमाता था और बदमाशियों व उच्छृंखलताओं के लिए जिसका स्कूल भर में डंका बजता था, के जवाब सबसे नायाब रहे। मौका यदि सर्वश्रेष्ठ उत्तर आंकने का होता तो शर्तिया यह पहला अवसर होता जिसमें बाजी उसके हाथ लगती। उसके उत्तर में यह भी शामिल था- ‘’आग हम सबने इकट्ठे ही जलाई, मुंह से फूंक-फूंक कर जलाई। कुर्सी-टेबुल तोड़ना एक के बस की बात नहीं थी। एकता में बल है- यह निबंध हाल ही में हमारे हिन्दी सर ने पढ़ाया था, हमने इसे आजमा कर देखा और सही पाया। मुझे तो अपने टटका कराटे प्रशिक्षण के व्यवहारिक प्रयोग का यहीं पहला मौका मिला।’’ बाद में, जैसी कि प्रचंड उम्मीद बनती थी, शोभाकांत के इस शातिर-साहसिक जवाब के लिए प्रिंसिपल चतुर्वेदी सर ने खजूर के खुरदरे डंडे से कुछ ज्यादा ही देह सेवा की थी। कई खजूरी ‘दुखहरण’ उसकी ‘मरम्मत’ में लगाए गए थे और उसकी देह पर टूट गए थे। वह दर्द से बेतरह चीख चिल्ला रहा था और बिलबिला रहा था। जाहिर है, उस ‘अग्निकांड’ के बतौर सरगना उसकी पहचान की गयी थी। बदमाशियों के लिए सिरमौर ‘हिस्ट्रीशीटर’ तो वह था ही, जिसकी बदौलत उसकी स्कूलव्यापी पहचान थी। कुछ काल के लिए उसे दंडस्वरूप स्कूल-निष्कासन भी भोगना पड़ा।
**************************************************************************
तो जैसा कि हमने देखा, सरस्वती पूजा की आग से प्रायश्चित यज्ञ का हवनकुंड तैयार हुआ और फिर यज्ञ की आहुति से कथा दर कथा पनपी। पूजा और यज्ञ से प्रिंसिपल सर और प्रतिभागी अन्य जनों के मन-पापों का कितना प्रक्षालन हुआ, ये तो वे ही जानें, इन घटनाओं के पीछे छुपे खौफनाक सत्य व मंसूबों की जानकारी होने पर बिसेसर गहरे विचलित था। अब उसे प्रिंसिपल और कुछ शिक्षकों के चेहरे भेड़िए के चेहरे नजर आने लगे। जांच समिति से मिलकर लौटने के बाद वह मोची सर से मिला था और उसे सारा का सारा माजरा समझ में आ गया था। इन असहजकारी मुलाकातों के बाद वह जब क्लांत-आंदोलित मन स्कूल कैंपस-स्थित होस्टल लौटा तो उसने अपने कमरे में पहुंचकर पहला काम यह किया कि कविता की डायरी के उन पन्नों को अपने आतुर अधीर हाथों से नोच डाला, जिनमें उसने ईशभक्तिपरक स्वरचित एवं अन्य कविताएं बड़े मनोयोग से लिख सहेजी थीं। विनष्ट रचनाओं में सरस्वती वंदना वाली उसकी वह प्रिय कविता भी शामिल थी जिसका वह सरस्वती पूजा और कई अन्य अवसरों पर स्वेच्छया या लोगों की फरमाइश पर बड़े मनोयोग से भावपूर्ण पाठ कर श्रोताओं की ढेर सारी तालियां और वाहवाहियां बटोरा करता था।

गोया, तुलसीमन से कबीरी होने, बल्कि बुद्ध, कबीर एवं फुले के समुच्चय मानसशिष्य अम्बेडकर को अबतक न जानते हुए भी उस राह पर निकलने का सूत्र उसे उसका खुद का जीवन ही थमा था!
————

Language: Hindi
366 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Dr MusafiR BaithA
View all
You may also like:
3318.⚘ *पूर्णिका* ⚘
3318.⚘ *पूर्णिका* ⚘
Dr.Khedu Bharti
मिलेंगे इक रोज तसल्ली से हम दोनों
मिलेंगे इक रोज तसल्ली से हम दोनों
ब्रजनंदन कुमार 'विमल'
अगर आपको किसी से कोई समस्या नहीं है तो इसमें कोई समस्या ही न
अगर आपको किसी से कोई समस्या नहीं है तो इसमें कोई समस्या ही न
Sonam Puneet Dubey
रमेशराज के नवगीत
रमेशराज के नवगीत
कवि रमेशराज
मेरा शरीर और मैं
मेरा शरीर और मैं
DR ARUN KUMAR SHASTRI
रिश्तों का एहसास
रिश्तों का एहसास
Dr. Pradeep Kumar Sharma
तुम याद आये !
तुम याद आये !
Ramswaroop Dinkar
बदलती जरूरतें बदलता जीवन
बदलती जरूरतें बदलता जीवन
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
संस्कारी बड़ी - बड़ी बातें करना अच्छी बात है, इनको जीवन में
संस्कारी बड़ी - बड़ी बातें करना अच्छी बात है, इनको जीवन में
Lokesh Sharma
दर्द को मायूस करना चाहता हूँ
दर्द को मायूस करना चाहता हूँ
Sanjay Narayan
टमाटर के
टमाटर के
सिद्धार्थ गोरखपुरी
मां वो जो नौ माह कोख में रखती और पालती है।
मां वो जो नौ माह कोख में रखती और पालती है।
शेखर सिंह
मेरी किस्मत पे हंसने वालों कब तलक हंसते रहोगे
मेरी किस्मत पे हंसने वालों कब तलक हंसते रहोगे
Phool gufran
शब्द✍️ नहीं हैं अनकहे😷
शब्द✍️ नहीं हैं अनकहे😷
डॉ० रोहित कौशिक
व्यंग्य आपको सिखलाएगा
व्यंग्य आपको सिखलाएगा
Pt. Brajesh Kumar Nayak / पं बृजेश कुमार नायक
"अहंकार का सूरज"
Dr. Kishan tandon kranti
काश ऐसा हो, रात तेरी बांहों में कट जाए,
काश ऐसा हो, रात तेरी बांहों में कट जाए,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
श्रंगार के वियोगी कवि श्री मुन्नू लाल शर्मा और उनकी पुस्तक
श्रंगार के वियोगी कवि श्री मुन्नू लाल शर्मा और उनकी पुस्तक " जिंदगी के मोड़ पर " : एक अध्ययन
Ravi Prakash
इत्तिफ़ाक़न मिला नहीं होता।
इत्तिफ़ाक़न मिला नहीं होता।
सत्य कुमार प्रेमी
शुभ
शुभ
*प्रणय*
सुनो जब कोई भूल जाए सारी अच्छाइयों. तो फिर उसके साथ क्या किय
सुनो जब कोई भूल जाए सारी अच्छाइयों. तो फिर उसके साथ क्या किय
shabina. Naaz
जय माँ शैलपुत्री
जय माँ शैलपुत्री
©️ दामिनी नारायण सिंह
*My Decor*
*My Decor*
Poonam Matia
दिन ढले तो ढले
दिन ढले तो ढले
Dr.Pratibha Prakash
डर्टी पिक्चर (Dirty Picture)
डर्टी पिक्चर (Dirty Picture)
दीपक नील पदम् { Deepak Kumar Srivastava "Neel Padam" }
बाप ने शादी मे अपनी जान से प्यारा बेटी दे दी लोग ट्रक में झा
बाप ने शादी मे अपनी जान से प्यारा बेटी दे दी लोग ट्रक में झा
Ranjeet kumar patre
मैं भविष्य की चिंता में अपना वर्तमान नष्ट नहीं करता क्योंकि
मैं भविष्य की चिंता में अपना वर्तमान नष्ट नहीं करता क्योंकि
Rj Anand Prajapati
आँखों में अँधियारा छाया...
आँखों में अँधियारा छाया...
डॉ.सीमा अग्रवाल
ये भी क्या जीवन है,जिसमें श्रृंगार भी किया जाए तो किसी के ना
ये भी क्या जीवन है,जिसमें श्रृंगार भी किया जाए तो किसी के ना
Shweta Soni
शोर, शोर और सिर्फ़ शोर, जहाँ देखो वहीं बस शोर ही शोर है, जहा
शोर, शोर और सिर्फ़ शोर, जहाँ देखो वहीं बस शोर ही शोर है, जहा
पूर्वार्थ
Loading...