मुस्कुरा ना सका आखिरी लम्हों में
कहानियां खत्म हो जाती है,
इसलिए मैंने एक बार फिर कविता लिखी।
खत्म होने का डर सदा रहा मेरे अंदर,
शायद इसलिए भी मन में रह गयी है स्मृतियाँ।
निगाहों से समेट बटोर लाना चाहा,
उदारता, करुणा, भावना, पर बहुत कुछ रह गया शेष।
किसी का संकोचित तो किसी का कचोटता मन,
वेदना से ओत प्रोत किसी का छटपटाता मन।
मोतियों सी आँखे और करुणा भरा स्वर,
बड़ा रमणीय था दृश्य, सब अपने अपने दिल पर।
किसी का रोना किसी को कैसे मनोरम लग सकता है,
देखो! शायद रो कर तुमको भी तो अच्छा लगता है।
नहीं जानता किसी के हृदय के प्रेम का धरातल,
उन क्षणों में दिखा केवल निस्वार्थ निश्चल मन।
कितना कुछ कहा गया उन कहकहो में,
काफी कुछ रह गया उन अंतिम लम्हों में।
बड़ा मार्मिक था तुमसे आख़िरी लम्हों में मिलना,
कठोर मन से अलविदा कहना अब तक मुश्किल रहा।
हँसता था बंदिशें सारी खत्म होगी,
और देखो, मैं मुस्कुरा ना सका आखिरी लम्हों में।