कहां हो भगवान !
बचपन से सुनता आया हूं,
जिसका कोई नहीं होता,
उसका स्वयं खुदा होता है।
वो दुखियों के दुख हरता है,
घाव सबके वो भरता है।
पढ़ा मैने किताबों में भी यही,
उसके घर देर है अंधेर नहीं,
वो ही सबका भाग्य विधाता,
हम सबका वो जीवन दाता।
वो दारिद्रों का नारायण है,
वंचितों के लिए परायण है।
वो इस जग का स्वामी है,
वो सर्वज्ञ है, अन्तर्यामी है।
फिर क्यों जीवन में पीड़ा है,
सुख दुख की कैसी क्रीड़ा है।
जन्म मरण का कैसा बंधन है,
जीवन में क्यों इतना क्रंदन है।
क्यों सड़कों पर बच्चे भूखे हैं,
पुष्प मुरझाए,उपवन सूखे हैं।
क्यों सब अच्छे लोग दुखी हैं,
क्यों चोर उच्चके सब सुखी हैं।
क्यों भ्रूण हत्याएं होती हैं,
माताएं बेबस क्यों रोती हैं।
क्यों जीवन में इतना गम है,
क्यों आंख बुजुर्गों की नम है।
कहां खोई खुदा की खुदाई,
मौन क्यों हुई सारी प्रभुताई।
कहां हो भगवान, अब आओ
प्रभाव अपना कुछ दिखाओ।
देखो जग का हाल बुरा है,
कष्ट है उसको जो भला है।
धन दौलत का बढ़ा प्रभाव है,
भावनाओ का हुआ अभाव है।
अब तो तुमको आना होगा,
शस्त्र रण में उठाना होगा।
गीता का सार सुनना होगा,
पाठ धर्म का पढ़ाना होगा।