कहां याद कर पाते हैं
कहाँ याद कर पाते हैं
उन भूले-बिसरे दिनों को,
शैतानियों से भरी अटखेलियों को,
माँ के दुलार को,
सुबह के आलस को,
बैठे-बैठे जहाँ दिन गुजरते थे
उस आँगन को,
भाई-बहनों के संग हंसते-खेलते
और फिर लड़ जाने को,
दूसरों के खिलौनों पर अड़ जाने को,
पिता से डर-डर के
अपनी ख्वाहिश बताने को,
कहाँ याद कर पाते हैं ।
वो तो दूर जा चूकी हैं,
धीरे-धीरे भुला दी गई हैं ।
क्योंकि बदलते दौर के
बदलते मौसम में,
बदलती इस दुनिया में,
नई-नई चिंताओं में,
चुप रहने की आदतों में,
भागम-भाग सी जिंदगी में,
लम्बी-लम्बी छलांगों में,
कहीं पीछे छोड़ चुके हैं
अपने अच्छे-बूरे एहसासों को ।
पर वे यादें अभी भी वहीँ ठहरी हैं
बीते हुए लम्हों में ।
बस फर्क इतना है
कि जिन यादों को छूकर
जहाँ से गुजरा करते थे,
अब उस रहा पर चलना भूल गए हैं ।
इसलिए उन यादों को,
अब कहाँ याद कर पाते हैं ।