कहां गया वो वक्त
कहाॅ खो गया वो वक्त…
जब खुषियों की कीमत
माॅ के चेहरे से लग जाती थी
आॅसू उसकी आॅख से टपकता था
औ फफोले औलाद के दिल के फूट पडते थे
कहाॅ खो गया वो वक्त…
जब जरूरत से ज्यादा माॅ का लाड
अहसास करा जाता था औलाद को
कि…कहीं कोई गम है जो
वो छिपा रही है प्यार की आड में
कहाॅ खो गया…….
जब जरूरते एक दूसरे की
समझ ली जाती थी खामोष रहकर भी
संसकारो और समझ का दूद्य जब
रगों में दौडता था लहू बनकर
कहाॅ खो गया वो वक्त…..
अब औलाद को माॅ नजर नही आती
नजर आता है बस एक जरिया
अपनी ख्वाहिषों को पूरा करने का
अपने चेहरे की हॅसी बनाये रखने का
फिर चाहे उसके लियेकृ
माॅ का चेहरा आॅसूओं से
तर ही क्येां न हो जाये।
वक्त इतना कैसे बदल गया……
क्या दूद्य ने रगो में जाकर
खून बनाना छोड दिया
क्या ममत्व की परिभाशा में
दर्द का समावेष द्यट गया
क्या ख्वाहिषों के कद
रिष्तों से उॅचे हो गये
क्या आद्युनिकता ने माॅ के
अद्यिकारों का दायरा द्यटा दिया।
कहाॅ खों गया वो वक्त…..
क्यों नही लौट आते वो भटके हुए
बच्चे अपनी माॅ की गोद तक
क्येां नहीं संसार को एक बार
उसकी नजरो से देखते
क्येां जिंदगी को समझते नही वो
माॅ बाप की दी सौगात
क्यों इक बार वो उसे पूजते नही
भगवान मान कर….
कहाॅ ख्