कहांँ गए वो भाव अमर उद्घोषों की?
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आज मेरी कविताएं मुझसे पूछ रही.
आज मेरी कविताएं मुझसे पूछ रही…
कहां गए वो भाव अमर उद्घोषों की।
जहां व्यथाएं स्वर्णिम अक्षर होती थी…
जहां चेतना व्योमी उर्ध्वर होती थी…
जहां अंधेरों को मैंने एकांत कहा।
तूफानों से भी रहने को शांत कहा!
जहां सूर्य छपता था क्षितिज के दामन में
जहां रश्मियां ही थी रानी मेघों की।
आज मेरी कविताएं मुझसे पूछ रही…
कहां गए वो भाव अमर उद्घोषों की।
आंसू में उत्पल्लिवत भाव नहीं होता…
अगर कुसुम स्पर्शी घाव नहीं होता..
कभी निराशा छंदों को न छू पाती।
अगर मेरे आंखों में नहीं लहू आती।
जहां अमर शब्दों की गरिमा उत्तम हो।
वहांँ गलत है बात व्यथा के वेगों की।
आज मेरी कविताएंँ मुझसे पूछ रही…
कहांँ गए वो भाव अमर उद्घोषों की।
जहांँ प्रेम उपवास के जैसे होता था
जहांँ फासले का ‘फ’ सुन दिल रोता था।
जहांँ मयस्सर थी खुशियांँ हर इक दिल में
जहांँ साथ ही लोग खड़े थे मुश्किल में
जहांँ जगनुओं को जलने से ठंडक थी…
वहां तितलियांँ बन गई मौत पंतगों की….
आज मेरी कविताएंँ मुझसे पूछ रही…
कहांँ गए वो भाव अमर उद्घोषों की।
दीपक झा रुद्रा