कहाँ बुरा
कहाँ बुरा है जग इतना सुंदर तो है ।
भले दिखे न बाहर पर अंदर तो है ।।
यह कबाड़ इसमें भी कविता सोई है ।
यह सरिता निर्बाध स्वमन में खोई है ।।
कितने सुमन खिले मुरझाए और खिले ।
कितने पथ भूले भटके फिर और मिले ।।
सुख दुख भी आते जाते हर घर तो है।
भले दिखे न बाहर पर अंदर तो है ।।
सुनी छांव घने कुहरे का मोद अलग ।
खेतों की मिट्टी की कोमल गोद विलग ।।
मैदानों की घास लिए हरियाली है ।
जंगल में जाकर देखो खुशहाली है ।।
थके पंथियों की काया, जर्जर तो है ।
भले दिखे न बाहर पर अंदर तो है ।।
सारंगी के स्वर संध्या की बेला है ।
नदिया तीरे गाता कोई अकेला है ।।
मन की मोजों के आगे न ठौर कोई ।
तूफानों से होड़ लगाता और कोई ।।
फटा पुराना फूल भरा बिस्तर तो है ।
भले दिखे न बाहर पर अंदर तो है ।।
– सतीश शर्मा,
सिहोरा (नरसिंहपुर)
बुरा