कहाँ जाऊँ….?
बीस वर्ष की हुई थी वह, जब एक दुर्घटना में माता-पिता का देहांत हो गया। जिंदगी ठीक-ठाक चल रही थी उसकी। पिता गाँव के स्कूल में अध्यापक थे। माँ कुशल गृहणी, भाई शहर में नौकरी करता, अपने पत्नी व बच्चों के साथ रहता था।
एक रविवार स्कूल की छुट्टी का दिन, माँ ने पिता से इच्छा व्यक्त की क्यों न आज छुट्टी बेटे के साथ बितायी टजाये। पिता को भला क्या आपत्ति ? बेटी और पत्नी को साथ ले बस में जा बैठे। बस शहर की ओर चल पड़ी।
नियति की क्रूरता ! अचानक सामने से आते तेज रफ्तार ट्रक से बचने के प्रयास में ड्राइवर संतुलन खो बैठा, बस सड़क के किनारे विशाल वृक्ष से जा टकरायी। रही-सही कसर पूरी कर दी विपरीत दिशा से आती ट्राली ने जो बरातियों से भरी थी, बस से जोरदार टक्कर और परिणाम भीषण दुर्घटना। अनेक यात्रियों की दुर्घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गयी। उसके माता-पिता भी उन्हीं में शामिल थे।
गाँव से शहर पहुँचने से पूर्व उसकी किस्मत पलट चुकी थी। चोटें उसे भी आयीं किन्तु गम्भीर न थीं। हाॅस्पिटल से डिस्चार्ज मिलने पर भाई उसे अपने घर ले आया किन्तु पहले वाली बात न थी। भाभी को उसकी मौजूदगी अधिक गवारा न थी। वह शहर के तौर-तरीकों से अधिक परिचित नहीं थी, अत: यहाँ की सोसाइटी में तुरंत सांमजस्य स्थापित करना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य था। उस पर माता-पिता से बिछड़ने का ताजा घाव, फिर भी स्वयं को संभालने का यथासंभव प्रयत्न किया। दिन भाभी के द्वारा बताये घरेलू कार्यों एवं बच्चों को संभालने में भाभी का सहयोग करते हुए व्यतीत हो जाता। भाभी ने गृहस्थी का लगभग सम्पूर्ण दायित्व उसके नाजुक कंधों पर डाल दिया, फिर भी वह उससे किसी प्रकार संतुष्ट न हो पाती। शाम को भाई के लौटने के पश्चात उसके विरुद्ध आरोपों की झड़ी सी लग जाती जिससे भाई का व्यवहार भी उसके प्रति परिवर्तित होने लगा। परिस्थितियों को समझते हुए वह मौन रहती।
भाई ने हालात देखते हुए अधिक समय न गँवाकर रिश्ता तलाशा और जल्दी ही उसका विवाह कर दिया।वह ससुराल पहुँच गयी। लम्बा-चौड़ा परिवार नहीं था। केवल पति व सास जो बीमार थीं। पति की नौकरी अच्छी थी। व्यक्तित्व भी दिखने में उसकी अपेक्षा कहीं अधिक आकर्षक था। वह रंगरूप, शिक्षा सभी में सामान्य, जोड़ बराबर का न था। पति ने विवाह के प्रारंभ में ही जता दिया कि उसकी व्यक्तिगत दुनिया में उसके लिए स्थान नहीं है। उसे केवल घर व सास की देखभाल करनी थी। एक बार फिर उसने समझौता कर लिया और कोई रास्ता भी न था। भाभी ने विदाई के समय ही समझा दिया था कि अब ससुराल में ही उसे जगह बनानी होगी। उसने यहाँ भी स्वयं को सास व घर की देखरेख में व्यस्त कर लिया। पति अधिकांश समय आफिस टूर पर घर से बाहर रहता। वक्त अपनी रफ्तार से बीत रहा था। एक रात सास की तबीयत बिगड़ी और वो भी परलोक सिधार गयीं। माँ के देहांत के पश्चात पति और उसके मध्य वार्तालाप की कड़ी समाप्त सी हो गयी।
अक्सर वह घर से बाहर ही रहता। ऐसा नहीं था कि उसने प्रयास न किया हो किन्तु उसके प्रयास का प्रत्युत्तर दुत्कार व अपमान के रूप में मिला। एक दिन यह किस्सा भी समाप्त हो गया जब पति ने उसे आधी रात को यह कहकर घर से बाहर निकाल दिया कि अब यहाँ तुम्हारी आवश्यकता नहीं है। उसकी अनुनय-विनय काम न आयी।
पड़ोस में रहने वाले परिवार ने रात्रि में यह सोचकर आश्रय दिया कि सुबह उसके पति से बात कर समझाने का प्रयास किया जायेगा। किन्तु पति ने अवसर नहीं दिया, सवेरा होने पर घर के दरवाजे पर ताला लगा मिला। पड़ोसी ने भी हाथ खड़े कर दिये।
क्या करती वह ? कालोनी में स्थित समीप वाले पार्क में आकर बैठ गयी। आँखों में आँसू व मन में स्मृतियाँ। दो वर्ष, मात्र दो ही वर्ष और एक दुर्घटना; उसकी दुनिया बदल गयी थी।वृक्ष तले घुटनों में मुँह छुपाये सिसक रही थी कि किसी ने कंधा पकड़कर हिलाया। सिर उठाकर देखा, बारह-तेरह वर्ष का लड़का पूछ रहा था, ” दीदी, रात होने वाली है। यहाँ क्यों बैठी हो, घर नहीं जाओगी क्या..?”
वह सोचने लगी, ” कौन सा घर..? कहाँ जाऊँ…?”
रचनाकार :- कंचन खन्ना, कोठीवाल नगर, मुरादाबाद. (उ०प्र०, भारत)
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)
ता० :- ११/०४/२०२१.