कहाँ छुपे तुम तात विभीषण ।
छाती सहती नित पद प्रहार
हो रही सहिष्णुता तार तार
हम भाई समझ कर बार बार
न्योछावर करते रहे त्राण
वे सब तो निकले खर दूषण
कहाँ छुपे तुम तात विभीषण ।
मुस्लिम आवादी जहाँ बढ़े
वहाँ देखे हमने सांड़- पड़े
आतंकी गुट को किये खड़े
कश्मीर हुआ उनका प्रांगण
जहाँ दिखें रावण अहिरावण
कहाँ छुपे तुम तात विभीषण ।
राघव से जाकर कौन कहे
कश्मीरी पंड़ित कष्ट सहे
घर-वार छोड़ कर भाग रहे
सो रहे वहाँ पर कुम्भकरण
होता सीमा का चीर हरण
कहाँ छुपे तुम तात विभीषण ।
करवाते वे खून खराबा
देश भक्ति का करते दावा
पास पड़ौसी करें छलाबा
छद्म भेष में चला रहे रण
तरुणाई का करके शोषण
कहाँ छुपे तुम तात विभीषण ।
मर्यादा ने सीमा तोड़ी
सीमा पर हरकतें हिगोड़ी
संभले नहीं स्वयं की ड़्योढ़ी
पिटे और फिर किया समर्पण
करने कौरव पथ का तर्पण
कहाँ छुपे तुम तात विभीषण ।
लक्ष्मी नारायण गुप्त