कहाँ गए मेरे दिन वे सुनहरे….
कहाँ गए मेरे दिन वे सुनहरे !
संबंध सुखों से जब थे गहरे !
स्वच्छंद गोद में प्रकृति की,
होती थीं अनगिन क्रीडाएँ !
सुख से पटी दिल की जमीं पर
उपज आईं ये कैसी पीडाएँ !
सपनों पर भी लगे अब पहरे
कहाँ गए मेरे———–!
जब- जब आते संग लाते थे
नित नई एक सौगात !
अभिन्न मित्र थे तीनों मेरे
जाडा- गरमी- बरसात !
अरमानों के सर सजे थे सहरे
कहाँ गए मेरे————!
जिन्हें देख आँखें जीती थीं
स्नेह-सुधा भर भर पीती थीं !
कितनी मधुर जीवन की घडियाँ
जिनकी छाँव तले हँसकर बीती थीं !
कितने धुँधले हुए वे चेहरे !
कहाँ गए मेरे———-!
कभी प्राण कलपते थे जिनके
देख के इन आँखों में पानी !
पाषाण बने क्यों आज खड़े वे
सुनकर मेरी करुण कहानी !
अपने बैरी हुए या बहरे !
कहाँ गए मेरे – – – – – – !
नफरत की दीवारें ढहती
उल्फत का जब जब बरसे पानी !
वो जज्बा आज भी जिंदा है
नहीं मरा हर आँख का पानी !
कोई मुझसे आकर ये कह रे !
कहाँ गए मेरे – – – – – – – -!
सुख- दुख तो आते- जाते,
जैसे आते पतझर-सावन !
दुख की रातें भी बीतेंगी
दिन भी आयेंगे मनभावन !
मन परिवर्तन हँसकर सह रे !
कहाँ गए मेरे दिन वे सुनहरे !
संबंध सुखों से जब थे गहरे !
—सीमा अग्रवाल—
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )