कहता है कौन हो गईं कम बेक़रारियाँ।
कहता है कौन हो गईं कम बेक़रारियाँ।
बढ़ती ही जा रही हैं सनम बेक़रारियाँ।
दर्द और ग़म के गहरे समन्दर में डूब कर।
लिखता है मेरी अब तो क़लम बेक़रारियाँ।
फ़ुर्सत नहीं है मुझको अभी तेरी याद से।
मैं फिर कभी करूँगा रक़म बेक़रारियाँ।
लगता है शादमानी नहीं है नसीब में।
हिस्सा हैं मेरा दर्द ओ अलम बेक़रारियाँ।
हर वक़्त बेक़रार हूँ हर वक़्त बेक़रार।
मत पूछ मेरे दिल की सनम बेक़रारियाँ।
नग़्मा कोई ख़ुशी न क़िस्सा सुकून का।
इस वक़्त तो हैं ज़ेर ए क़लम बेक़रारियाँ।
चेहरे से हैं ‘क़मर’ के तिरे अब तो आशकार।
छिपती नहीं हैं तेरी क़सम बेक़रारियाँ।
जावेद क़मर फ़िरोज़ाबादी