कश्मीरी पण्डितों की रक्षा में कुर्बान हुए गुरु तेगबहादुर
सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर सरल-सौम्य और संत स्वभाव के थे। वे सामाजिक बुराइयों को दूर करने में सदैव तत्पर रहते थे। गुरुजी ने राजा भीमसिंह के सहयोग से आनंदपुर साहब की नींव रखी। वे यहाँ के शान्त और आनंद प्रदान करने वाले वातावरण में लम्बे समय तक ईश-आराधना में लीन रहे। यहाँ प्रत्येक दिन लंगर लगता, शबद-कीर्तन होता और सतनाम के जाप से वातावरण भक्तिमय बनता।
गुरुजी ने सामाजिक-सुधार के कार्यक्रमों को गति प्रदान करते हुए भिडीवाल के सुल्तान सरवर के शिष्य देसू सरदार को सिख धर्म की शिक्षा प्रदान करते हुए बुरे कर्मों के स्थान पर सत्संग की ओर उन्मुख किया। गुरुजी जब धमधान गाँव पधारे तो उन्होंने ग्रामवासियों को पशुओं के अति दुग्धदोहन पर रोक लगाने का उपदेश दिया। गुरुजी ने कहा कि अति दुग्धदोहन से प्राप्त दूध लहू के समान होता है। गुरुजी जब वारने गाँव पहुँचे तो उस गाँव के मुखिया के साथ-साथ अन्य ग्रामवासियों को तम्बाकूसेवन के दुष्परिणामों को समझाकर, उनसे तम्बाकू सेवन न करने की शपथ दिलायी। गुरुजी इतने संत स्वभाव के थे कि जब वे प्रसिद्ध संत मलूकदास से मिले तो मलूकदास ने गुरुजी को बताया कि वह आज तक पत्थरों को भोजन कराते रहे हैं, आज साक्षात गुरु को करा रहा हूँ।
गुरुजी ने अपनी माता जानकी, गुजरी जी, भाई कृपालचंद व अन्य श्रद्धालु संतों को लेकर जब आनंदपुर से दो कोस दूर पहली यात्रा का जहाँ डेरा डाला, उससे आगे मूलेबाल गाँव था, उन्हें पता चला कि इस गाँव के कुँओं का पानी खारा है, गुरुजी ने उस गाँव में जाकर सतनाम का जाप किया और आदि गुरु नानक का स्मरण करते हुए ईश्वर से इस गाँव के कुँओं के पानी को मीठा करने की जब प्रार्थना की तो इस प्रार्थनास्वरूप समस्त कुँओं का पानी मीठा हो गया। इस चमत्कार को देख समस्त ग्रामवासी उनके प्रति और श्रद्धा से भर उठे। इसके उपरांत ये कुँए ‘गुरु के कुँए’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
गुरु तेगबहादुर के समय में समस्त भारत पर मुगल बादशाह औरंगजेब का शासन था। औरंगजेब कट्टर ही नहीं क्रूर शासक था। वह अपनी धार्मिक भावनाओं को विस्तार देने के लिये हिन्दुओं को मुसलमान बनाने और इस्लाम कुबूल करवाने के लिये हर प्रकार के शासकीय हथकंडे अपनाने में जुटा था। उसकी क्रूर नीतियों के कारण हिन्दू संत समाज से लेकर समस्त हिन्दू जाति आतंकित थी। औरंगजेब के आदेश पर कश्मीर का जनरल अफगान खाँ भी हर रोज कश्मीरियों, वहाँ के हिन्दुओं, खासतौर पर पण्डितों को धमकाने में जुटा था और कहता था कि या तो वह इस्लाम स्वीकारें अन्यथा उन सबका कत्ल कर दिया जायेगा। दुःखी और भयभीत कश्मीरी पण्डित अपनी इन असहाय परिस्थिति में गुरु तेगबहादुर से मिले। गुरुजी ने उने लोगों को उनकी रक्षा का आश्वासन दिया। यह खबर जब बादशाह औरंगजेब के कानों तक पहुँची तो वह कुपित हो उठा। उसने गुरु तेगबहादुर को दिल्ली बुलवाया और इस्लाम स्वीकारने को कहा। गुरुजी बादशाह के सम्मुख तनिक भी भयभीत न हुए। उन्होंने बादशाह से स्पष्ट शब्दों में कहा-‘एक सच्चा सिख अपनी शीश दे सकता है, धर्म नहीं।’ गुरुजी की यह बात सुनकर औरंगजेब ने गुरुजी और उनके शिष्यों को जेल में डलवा दिया। जेल में उन्हें तरह-तरह से प्रताडि़त किया गया। उन्हें भयभीत करने की गरज से उन्हीं के सम्मुख उनके शिष्य मतिदास को आरे से चिरवा दिया। गुरुजी को फिर भी अपने धर्म पर अडिग देख 11 नवम्बर 1675 को चाँदनी चौक दिल्ली में उनका सरेआम कत्ल करा दिया गया। जहाँ गुरुजी शहीद हुए, उस स्थान पर स्थित शीश गंज गुरुद्वारा आज भी इस बात की स्पष्ट गवाही देता है कि गुरु तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितों की खतिर अपना बलिदान देकर हिन्दू-सिख सामाजिक सौहार्द्र की मिसाल पेश की।
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रमेशराज,सम्पर्क- 15/109, ईसानगर, अलीगढ़