कशमकश
शब्दों के पंछी
चहचहाते शोर मचाते
कहाँ कहाँ से
मन के आंगन में
उड़ उड़ कर आते….
दौड़ दौड़ कर
उनके पीछे भागूँ
पकड़ कर उनको
कैद करना चाहूँ…
पर पास आते आते
फुर्र से वो उड़ जाते….
बस आ जाती हैं
कभी कभी मेरे हाथ
छोटी छोटी चिड़ियाँ..
पकड़ कर उनको
मैं खूब इतराउं
रंग कर अपने रंग में
फिर नुमाइश लगाऊं….
लेकिन कोने में रखा
वो खाली पिंजरा मुझे
हर बार है घूरता
मेरी नासमझी का
है उपहास उड़ाता….
न जाने कब
पकड़ में आएगा
वो नायाब पंछी
जिसकी बोली में हो
एक दहाड़ सी
और दृढ़ता हो
किसी पहाड़ सी
बिन कहे भी
जो कह जाए
दास्तान अपनी
ऊंची उड़ान की….
सीमा कटोच