*कवि बनूँ या रहूँ गवैया*
कवि बनूँ या रहूँ गवैया
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न शब्दों का ज्ञान न बुद्धि से पहचान
न किया कोई प्रयास फिर भी
दिया नहीं रोजगार
यह सरकार निक्कमी है ।
सरगम से मेरा सरोकार नहीं
न है कविता के क का ज्ञान
पारम्परिक गाने तोड़-मरोड़
दे दिया है अपना नाम ।
चोरी-चोरी खा कर माल
सरकारों से किया सवाल
अब कवि रहूँ या गायक
सोंच-सोंच के हूँ परेशान।
सिक्कों की खनक पर थिरक-थिरक
बदनाम सही मैनें भी नाम कमाया
का बा का बा रट के मैनें
मोटर कार है पाया।
अपनी तो अब निकल पड़ी
सब्स्क्राइबर हो गये लाखों पार
विधानसभा में नाम उठा
टीवी पर भी हूँ भरमार।
अब भाड़ में जाये बेरोजगार
अबकी सौदा महल अटार
चल पड़ा है करोबार धुआँधार
लेकिन सरकार निक्कमी है।
मुक्ता रश्मि
मुजफ्फरपुर (बिहार)
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