कविवर दिग्गज मुरादाबादी: व्यक्तित्व व कृतित्व
अत्यंत सरल किंतु अत्यंत स्वाभिमानी थे दिग्गज मुरादाबादी जी।
स्मृति शेष दिग्गज मुरादाबादी जी से मेरा प्रथम परिचय सन् 1984 में रामपुर में हुआ था। उस समय वह रामपुर में शिक्षक के रूप में कार्यरत थे। बल्कि यह कहना भी सर्वथा सत्य होगा कि कविता लिखने हेतु मुझे उन्होंने ही प्रोत्साहित किया।
वह अत्यंत सरल व्यक्ति होने के साथ साथ अत्यंत स्वाभिमानी भी थे। सरल इतने कि पहली मुलाकात में ही पूर्ण अपनत्व से मिलते थे, लगता ही नहीं था कि हम पहली बार मिल रहे हैं, और स्वाभिमानी इतने कि जहाँ जरा भी स्वाभिमान को ठेस लगी, फिर उस तरफ मुड़कर भी नहीं देखते थे। एक बार हमने और टोस्ट मुरादाबादी ने मिलकर रामपुर में सवेरा साहित्यिक संस्था की स्थापना की, उसमें दिग्गज जी व हीरालाल किरण जी भी संरक्षक थे। उसी संस्था के संयोजन में रामपुर में एक राष्ट्रीय कवि सम्मेलन के आयोजन की योजना बनी। हम सबके साथ साथ दिग्गज जी भी अत्यंत सक्रियता के साथ आयोजन की योजना व व्यवस्थाओं में लगे रहते थे। किंतु आयोजन से कुछ दिन पूर्व ही किसी बात पर वह नाराज हो गये, फिर तो उन्हें बहुत मनाने का प्रयास किया गया लेकिन वह आयोजन में नहीं गये। किंतु मुझ-पर उनका स्नेह बाद में भी यथावत बना रहा।
वस्तुतः वर्ष 1982 में, मैं भारतीय स्टेट बैंक रामपुर में अधिकारी वर्ग में स्थानांतरित होकर गया था। शाखा बड़ी थी और मुझे बचत खातों के काउंटर्स के पासिंग अधिकारी का दायित्व दिया गया था। वहाँ तमाम अन्य सरकारी विभागों के साथ साथ स्कूलों के व आकाशवाणी के वेतन के खाते भी थे, जिस कारण शिक्षकों के साथ साथ आकाशवाणी के कर्मचारी और वह कलाकार जिनके प्रसारण आकाशवाणी पर होते थे वह अपने मानदेय के चैक लेकर मेरे पास ही आते थे। ऐसे ही अवसर पर दिग्गज जी से परिचय हुआ किंतु उन्होंने अपने विषय में कुछ नहीं बताया, मैं भी व्यस्तता के कारण ज्यादा समय नहीं दे सका, बल्कि ये सज्जन दिग्गज मुरादाबादी हैं, ये भी नहीं पता चला।
सन् 1983 में मुरादाबाद के ही हमारे एक साथी मुकेश गुप्ता पदोन्नति पर रामपुर स्थानान्तरित होकर आये। उस समय तक मैं केवल गद्य में आलेख लिखता था और आकाशवाणी पर मेरी वार्ताएं प्रसारित होने लगी थीं। बल्कि आकाशवाणी के अधिकारियों से संपर्क के कारण हमारे बैंक के विभिन्न अधिकारियों की वार्ता तथा साक्षात्कार आदि के प्रसारण हेतु लाइजनिंग भी मुझे करनी होती थी। ऐसे ही एक अवसर पर मुकेश गुप्ता ने कुछ चुटकुलों पर आधारित तुकबंदियां सुनाईं, और प्रस्तुतिकरण इतना प्रभावी था कि हास्य भी उत्पन्न हुआ और वाहवाही भी मिली। मुकेश जी की देखा देखी हमने भी तुकबंदियां शुरु कीं, फिर एक दिन मुकेश जी ने दिग्गज मुरादाबादी जी को खोज ही लिया। उस दिन भी वह बैंक में ही आये थे। मुकेश जी ने मुझे बुलाया और दिग्गज जी का परिचय कराया, मैंने भी बताया कि मेरा परिचय तो पुराना है किंतु दिग्गज मुरादाबादी के तौर पर परिचय नहीं था।
फिर एक दिन मुकेश जी के घर ही एक गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें दिग्गज जी, हीरालाल किरण जी तथा मुरादाबाद से आदरणीय मक्खन मुरादाबादी जी भी आये थे। गोष्ठी बहुत अच्छी जमी। मुकेश जी ने अपनी हास्य रचनाओं से खूब हँसाया, मैंने विजयादशमी के संदर्भ में व्यंग रचना प्रस्तुत की और वह भी खूब जमी। उसी गोष्ठी में मक्खन जी द्वारा मुकेश गुप्ता का नामकरण टोस्ट मुरादाबादी कर दिया गया। मैं पहले ही ‘कृष्ण’ उपनाम से लिखता था।
बस उस दिन के बाद से दिग्गज जी से निरंतर मुलाकातों का सिलसिला चल निकला। जब भी मिलते कहते कौन सी नयी कविता लिखी है, सुनाओ। हम छंदबद्ध लिखना तो जानते ही नहीं थे बस तुकबंदी करते थे, या अतुकांत लिखते थे, लेकिन वह सदैव उत्साहवर्धन करते थे। जाने कितनी बार रामपुर में मेरे निवास पर भी आना हुआ, उन दिनों लिखने का ऐसा उत्साह हो गया था कि रोज कुछ न कुछ नया लिखा जाता था, मैं अमूमन गद्य में ही सामयिक लेखन करता था, जिसमें व्यंग भी शामिल थे , साथ ही उन्हीं दिनों में तमाम परिस्थितिजन्य व्यंग रचनाएं भी लिखीं, दिग्गज जी को हर बार नयी रचना सुनायी जाती और उनसे प्रोत्साहन मिलता तो मन को संतुष्टि मिलती।
वह अक्सर अपनी बाल कविताएं ही सुनाते थे, जिस कारण मन में यही धारणा बन गयी कि ये बाल कवि ही हैं। लेकिन उन्हीं दिनों रामपुर में पुरानी तहसील में एक कवि सम्मेलन व मुशायरे का आयोजन हुआ, जिसमें पंक्ति आधारित (तरही) रचना प्रस्तुत करनी थी। एक पंक्ति दिग्गज जी के गीत ‘प्रिय मेरा विश्वास तुम्हीं हो’ थी। मैंने उसी पंक्ति पर एक गीत लिखकर प्रस्तुत किया,
जिसे मुख्य अतिथि श्री आबदी इलाहाबादी द्वारा भी सराहा गया।
उसी आयोजन में जब बाद में दिग्गज जी ने अपना मूल गीत पढ़ा तो मै उनकी रचनात्मक प्रतिभा से पहली बार परिचित हुआ ओर बड़े ध्यान से उन्हें सुनता रहा।
आज भी उनका बुलंद आवाज में वो काव्यपाठ मुझे स्मरण है:
धारा प्रवाह वह पढ़ते जा रहे थे:
मैं क्या जानूँ रोली चंदन,
मैं क्या जानू़ँ अर्चन वंदन,
कैसा अर्ध्य कहाँ का पूजन,
होम किया जब सारा जीवन,
श्वास श्वास चेतन अवचेतन
की हर क्षण अरदास तुम्ही हो,
प्रिय मेरा विश्वास तुम्ही हो।
वह रचना पढ़ रहे थे और सब मंत्रमुग्ध हो सुन रहे थे।
ये रचना वर्तमान में पटल पर ‘माँ मेरा विश्वास तुम्ही हो’ पंक्ति परिवर्तन के साथ टंकित है।
उस दिन प्रथम बार मैंने दिग्गज जी के भीतर कवि के वास्तविक स्वरूप को देखा था।
तब तक उनकी कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई थी।
उनकी दोनों पुस्तकें बाद में ही प्रकाशित हुई हैं, बल्कि उनका अधिकांश साहित्य तो अभी तक अप्रकाशित ही है। हमने भी उनकी केवल वही रचनाएं सुनीं जो वह अपनी डायरी मैं से पढ़ते थे।
वर्ष 1986 में मेरा रामपुर से अन्यत्र स्थानान्तरण हो गया था। उधर 1986-87 में ही दिग्गज जी भी मुरादाबाद आ गये थे। कभी कभी जब अवकाश में मुरादाबाद आता था तो सोचता था कि उनसे जाकर मिलूँगा, किंतु ऐसा संयोग बन ही नहीं पाया।
इन दिनों पटल पर उनकी रचनाएं पढ़ने को मिलीं जिन्होंने उनकी रचनाधर्मिता के विराट स्वरूप का परिचय कराया।
उनके रचना संसार में विविध रस व छंद मिलते हैं, बाल कविताओं के अलावा माता की भेंटें हैं, जो भक्ति गीत ही हैं, करवा चौथ व्रत कथा अत्यंत सरल भाषा में छंदबद्ध की गयी है जो गेयता के लिहाज से भी अत्यंत सरल है। उनका यही साहित्य प्रकाशित है।
इसके अतिरिक्त उनका जो साहित्य अप्रकाशित है उसमें बहुत सुंदर गीत व गज़ल हैं, जिसमें भक्ति रस, श्रंगार, अंतरद्वंद, पीड़ा और विवशता, तथा सामाजिक विषमताओं पर भी उनकी लेखनी चली है।
कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं:
तुम गुलाब की कोमल कलिका,
श्वेत सारिका रूप नगर की (श्रंगार)
विजय की संभावना है, पराजय स्वीकार कर लूँ
क्यों निराशा को अकारण ही गले का हार कर हूँ, (गज़ल)
हे शिव शंकर नमामि शंकर,
रख लो मेरी लाज प्रभो। (भक्ति)
मृग मरीचिकाओं ने मुझको जीवन भर यूँ ही भटकाया
सारी उम्र बिता दी मैंने सरवर फिर भी हाथ न आया।
कब तक और भटकना होगा यह कह पाना नहीं सरल है
ये संबंध मुझे डस लेंगे शत प्रतिशत यह सत्य अटल है। (अंतर्द्वंद)
उनकी उर्दू में लिखी गज़लें और नज्में भी श्रेष्ठ होंगी, यद्यपि उर्दू का ज्ञान न होने के कारण हम उन्हें नहीं पढ़ पाये।
इतनी उत्कृष्ट काव्य रचनाओं का अप्रकाशित रहना बिल्कुल ऐसा है जैसे किसी की जीवन भर की बहुमूल्य पूँजी घर के किसी छिपे हुए आले में रखी रह गई हो और उत्तराधिकारियों को उसकी जानकारी ही न हो। दिग्गज जी के रचनाकर्म का हमें भी कहाँ पता था।
मेरी तीव्र इच्छा है कि दिग्गज जी की ये रचनाएं संकलित करके प्रकाशित हों।
मैं मनोज जी से प्रार्थना करूँगा कि उनका समस्त अप्रकाशित साहित्य संकलित करने का कष्ट करें तथा उर्दू की रचनाओं को भी देवनागरी में लिपिबद्ध करवा लें, और प्रकाशित करवाने का बीड़ा उठायें। मैं यथासंभव उनका सहयोग करूँगा।
इन्हीं शब्दों के साथ दिग्गज जी को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ।
साथ ही साहित्यिक मुरादाबाद के प्रकाशक डा. मनोज रस्तोगी जी का ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ, उन्हीं के सद्प्रयासों से मन से लगभग विस्मृत हो चुके दिग्गज मुरादाबादी जी की स्मृतियां पुनर्जीवित हुईं और उनके संदर्भ में तमाम साहित्यकारों के संस्मरण पढ़ने को मिले जिनसे उनके व्यक्तित्व की विशालता का परिचय मिला और उनके रचना संसार का परिचय मिला।
श्रीकृष्ण शुक्ल,
MMIG – 69,
रामगंगा विहार, मुरादाबाद (उ.प्र.)
भारतवर्ष.
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