कितना सत्य है !
लोग ठहरते नहीं
रूकते नहीं
बीती हुई चक्र में
स्थिति चाहे कुछ भी हो
अब कान्ति दिखती नहीं
जहाँ दिखती है
वहाँ परिस्थिति धुन्ध जाती
परिक्रमा करूं तो
इच्छा होगी परिपूर्ण
कितना सत्य है
या प्रमाणिकता है
इसे कहता कौन
ये भरी विडम्बना में
मैं मानता हूँ ये
समय का तो पुलिंदा है
पर किसे प्रतिक्षा है
जन्मचक्र के घूर्णन में
क्योंकि
आत्मतृप्ति तो है
पर मानता कौन ?
रोज़मर्रा के मौसम में
घटा बनता कौन ?
प्यास बुझाती कौन ?
ब्रह्माण्ड-रवि-ग्रह-पृथ्वी
क्या मनुष्यतत्व है ?
या देवत्त्व, देखो कोई स्पन्दन
हो रही कोई हृदय कोने में
या निस्पन्दन भला!