कवित्त ४५
पर्याप्त है
अब यहाँ जीना
आहें भरे ये
जाने कौन ? इसे…
पैसों के बोल हैं
समर्पण के शिकार कौन ?
मानवता तो धूल गई
अब मानव में नहीं
धिक्कारे जाते वो ही
जिन्हें परिस्थिति धुन्ध
पूज्यते वहीं नग्न या पामर
ये उरग डंक-सी, विकृति भी इसे
रंक सुहृदय क्षिति धनुषीय-सी कंचन
श्वेत सब जंजीर में
उठ वहीं पाते जिन्हें उत्साह
इन असंख्य आकर्षणों से
हैं वो पराजित…..