कविता
सूखी नदी
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सूखी नदी के किनारों ने पूछा ?
सखी ! तुम क्यों सूख रही हो ।
प्रश्न सुन व्याकुल हो गई ,
जी भर रोई !
नीर गिरे , जख्म रिसे ,
अतीत के पन्ने उलटे ।
उच्च श्रृंखला से गिरती
ममता की गोद समाती
बचपन में वह इठलाती
बरसात में वह इतराती
पुलिन धोती और काटती
समतल में सोना बाटती ।
बिकराल रुप देख मेरा ,
करते दण्डवत ,भजते भजन ,
भय से तटबंध काँपते ।
चौमासा मेरा शासन चलता
तट सावन के गीतों से सजता ,
प्राणी चहकते , जल क्रीड़ा करते
मुझमें रहते बातें करते ,
होली और दीवाली आती
मस्तो को मतवाली भाती ,
मेले सजते झूले लगते
खुशियों के अफसाने बनते ,
मेढक मछली बगुला बदक
देख हमें जाते थे बिदक
बालू के घरौदे रचके
सपने बुनते कलके
श्रापित हो गई सरिताएँ
गर्वित हैं वो आत्माएँ
मानव की लूटी मालाएँ
भुगते सब दंण्ड वेदनाएँ ।
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शेख जाफर खान