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11 Feb 2018 · 1 min read

कविता

देश का बचपन
——————-
आँखों में मासूमियत
चेहरे पर भोलापन,
कंधे पर डाले
एक फटी पुरानी बोरी
गली- गली घूमता,
हर कूड़े के ढेर मे तलाशता
जिंदगी,देश का बचपन।
स्कूल,किताबें,खेल का सामान
सब हैं उसके लिए बेमानी,
जीवन में ये सब चीज़ें
क्या अहमियत रखती हैं
उसे नहीं पता।
माँ-बाप के लिए वह
जिंदगी गुजारने में
निभाता है सहायक की भूमिका,
अपने भविष्य से अनजान।
विवश माँ- बाप
असहाय हो देखते रहते हैं
तिल-तिल समाप्त होते
अपने जिगर के टुकड़े का बचपन।
गरीबी उन्हें मौका ही नहीं देती
कुछ करने का,
उनके विषय में कुछ सोचने का,
मन मसोसकर रह जाने के सिवाय
कोई चारा ही नहीं है उनके पास।
समाज उन्हें देखता है
बातों से बस
दया दिखाता है,
सरकार योजनाएँ बनाती है
नेता भाषण देते हैं
गरमागरम बहसें होती हैं
चाय पानी के नाम पर
खर्च होते हैं करोड़ों रुपये
पर—-।
दलित,शोषित और वंचित
के नाम चलने वाला
ये अंतहीन सिलसिला
कभी तो थमेगा,
बाल-गोपाल की सुधि लेने
कभी तो मुरलीधर आएंगे।
हे प्रभु आओगे न!

डाॅ बिपिन पाण्डेय

Language: Hindi
262 Views
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