कविता
ढल रहा है क्षितिज तले भानु शिथिल होकर,
हो रही अलंकृत सांझ, कुछ सुरमई सी होकर।
बाट जोहती सिंदूरी संध्या फैली गगन में,
पी से मिलन की है सहेजे नव चाह मन में।
दिन में दिनकर नहीं मम, हैं हर प्राणी हेतु,
सबके लिए हैं बांधते रवि ऊर्जस्वित सेतु।
शर्म की लालिमा से हुई जाती है संध्या सिंदूरी,
आगमन हुआ स्वर्णिम सजन का,हुई दूर दूरी।
कुछ अंधेरा कुछ उजासी क्या समां है,
देख प्रेयसी की प्रीत में, दिवाकर रमा है।
नीलम जड़ी साड़ी में देखो सांझ लिपटी,
खग विहग गये घर अपने, चांदनी है छिटकी।
नीलम शर्मा