कविता
माँ, तुमको मुक्त कर लूँ
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सूखे पत्ते -सी झर रही हो
पल-पल बदल रही हो
वक्त की बंद मुट्ठी से
रेत-सी फिसल रही हो
चाहूँ ..मुट्ठी बंद कर लूँ
मैं तुमको कैद कर लूँ
बेरहम इस वक्त से
माँ, तुमको मुक्त कर लूँ
सलवटों से भर चला
है अब तुम्हारा चेहरा
समय लगा रहा है
क्यूँ याद पर भी पहरा
झुर्रियों के जाल में
तुम्हें ढूंढते हाथ मेरे
वक्त ने न जाने
कितने हैं ब्रश फेरे
आँखों में कहीं ,मेरी
पहचान खो न जाए
जैसे कानों में अब तुम्हारे
मेरे लब्ज जा न पाएं
सोचूँ …तो कांपती हूँ
आँगन वो बिन तुम्हारे
वो गांव-घर की देहरी
तुमसे जहाँ उजियारे
ऐ वक्त रूक जरा तू
क्यूँ भागता है ऐसे
बेरहम !नहीं तू रुकता
क्या माँ नहीं है तेरे
इला सिंह
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