कविता
वो पुरानी घर-गली
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सोचती हूँ तोड़ दूँ बंधन सभी
और मुक्त हो उडूँ गगन की गली
या लौट जाऊँ बन वही नन्ही चिरैया
वो ही बचपन की पुरानी घर-गली
वो सुनहरे खेत ,खेतों में लगी वालियां
और वही से लौटती वो घर की गली
हूँ भले ही बंद इन दरो-दीवार में
मूँद आँखें उडती रही उस घर-गली
दोस्तों का है हुजूम और प्रिय भी साथ ही
फिर क्यूँ भूलती नही वो बचपन की गली
इला सिंह
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