कविता
आज सुबह जब छत पर पहुंची
लगभग ग्यारह पांच हुआ था
और सामने वाली छत पर
पंद्रह कपड़े पड़े हुए थे
मेरी छत के आसमान में तैर रहीं थी आठ पतंगे
तीन बार पूरब से पश्चिम
दस चिड़ियों का झुंड गया था
एक बार उत्तर से दक्षिण, चार बार पश्चिम से पूरब
कुछ गुजरी चुपचाप
और कुछ चिड़िया खुलकर बोल रहीं थीं
दाईं तरफ तीसरी शफ में बालकनी से सोलह गमले लटक रहे थे, बीस रखे थे।
नौ फूलों के, दो बेलों के, और चाइना पाम सहित कुछ रंग बिरंगे पत्तो वाले
घर से तिरछी वाली छत पर
कोई पापड़ सुखा रही थी,
कहीं किसी ने बाल सुखाए
मैं बैठी थी, घूम रही थी,
देख रही थी जाने क्या क्या
चढ़ते दिन को काट रही थी,
जाने किसका इंतज़ार था
यूँ ही पूरा दिन बीता पर छत पर कोई पुष्पक नहीं उतरने वाला, जान रही थी
दरवाजे पर दस्तक होगी ऐसा कोई भरम नहीं था
तब मैं कुछ तो कर सकती थी,
क्या मुझको कुछ करना भी था
मुझे काम की फिक्र नहीं है
या फिर इतनी खाली हूँ मैं
शाम हो गई फिर से पंछी
जाने कितने
छोड़ो, अब मैं नहीं गिनूँगी।
उतर गए हैं फैले कपड़े
सिमट गया है सभी सुखावन
गमले अब भी लटक रहें हैं
उतर गया दिन।
मैं, अब भी कुछ नहीं कर रही
खड़ी हुई हूँ।
मुझको कोई काम नहीं है
हाँ अब थोड़ी भूख लगी है
चलती हूँ फिर
देखो फिर से पंछी निकले
सूरज कितना फीका है अब
खिड़की के पर्दों से होकर घर के कमरे झाँक रहे हैं
अभी कहीं से भीनी भीनी खुश्बू आयी
हाँ…!
मुझको तो भूख लगी थी…!