कविता
आँगन में घुटनों को मोड़े
हत्या लगे व्यक्ति सी बैठी, है
उसकी माँ, जिसकी बेटी भाग गई है।
बोझ बन चुके प्रश्न सभी के, दो आँखों से निचुड रहें हैं।
“कैसी माँ हो ? दिखा नहीं कुछ ?
तुम ही उसको सह देती थी!”
“नहीं परवरिश हुई ठीक से, इसी लिए ये दिन देखा है।”
दुनिया की आँखों से बिंध कर घर लौटे पतिदेव उसे ही कोस चुके हैं।
और भला क्या कर सकते हैं !
सोच रही है, कल ही जब मेहमान अचानक घर आए थे, सबने बोला
“खाने वाले का दाने पर नाम लिखा है।”
उनको जब नौकरी मिली थी, और
पड़ोसी फेल हुआ,
तो सबने बोला,
“किस्मत है ये,
“मेहनत क्या है ? सब करते हैं।
खुद उसका जब ब्याह हुआ था
, इतनी दूर –
अमेले वर से,
माँ बोली थी, “नियति तुम्हारी।”
दादी, पिता, पड़ोसी सबने यही कहा था,
”जोड़ी तो भगवान बनाए।
“किस्मत में जो लिखवाया था वो पाया है।”
अब जब बेटी भाग गई है, क्यों कोई ये नहीं बोलता –
“जाति, प्रथाएं, नियम, परवरिश, संस्कार सब एक तरफ हैं।”
“एक तरफ ब्रम्हा का लेखा।”
अब कोई क्यों नहीं बोलता,
“उसके लिए नियत वर था वो ?”
“दाने तक पर लिखा हुआ है खाने वाला,” अब कोई क्यों नहीं बोलता ?
©शिवा अवस्थी ‘शिवा’