कविता-मरते किसान नहीं, मर रही हमारी आत्मा है।
मरते किसान नहीं, मर रही हमारी आत्मा है।
बादल घरते हैं बजली कड़कती
बिन मौसम बारिश होती है,
तब खेत मे कटे पड़े गेंहूं देखकर किसान पर
क्या बीतती है।
पानी फिरते देखता है,
अपने महीनो की मेहनत पर
जब सूखने लगती हैवधान की फसल
आसमान निहारता है और बाट जोड़ता है बारिश
की संभावनाओं पर
बड़ी विषमताएं हैं एक किसान के जीवन मे,
बड़ी यातनाऐं है एक किसान जीवन मे।
डगमगाता तो सिहांसन उसका भी होगा,
पाषाण सरीख हिये से भी अश्रुवृस्टि होता होगा।
जब मरती है एक किसान
की आत्मा खुद को मारकर
पर नही पसीजती आंखे नेता ,मंत्री और सरकार की ।
पहुंच जाते हैं गिद्ध सा नोचने, खाने और
राजनीति करने लाशों पर,
विधवा विलाप चलता है टीवी,
प्रिन्ट मीडया और सोसल मीडया पर कुछ दिन,
बस दखती नही इन सब की असल वजह
और हमारी विफलताएं।
सब बदल रहा, रहन,सहन
और रीत रिवाज,
बस बदलती नहीं किसान की तकदीर
इस देश में।
बढ़ते खेती की लागत
बढ़ते खाद ,बीज और दवाईयों की कीमत
बस बढ़ती नहीं न्यूनतम समर्थन मूल्य कृषी उत्पाद की ।
खेल खेलते और बंदर बांट करते अधिकारी
और संयोजक,
सब्सििडीईज, कृषि यंत्र और कसान केर्डिट, कार्ड पर।
सरकारें बन जाती है लुभावने वादों, योजनाओं
और किसान कर्जमाफी के अहसानो पर..
घट रही उवर्रता, सूख रहे सिंचाई श्रोत।
खेत की जगह ले रहे इंडस्ट्रीज और कॉम्प्लेक्स,
बढ़ रही अमीरी और विलासिता।।
प्राकृतिक संसाधनो पर
सबका समान अधिकार है,
पर्यावरण संरक्षण का किसान ही आधार है।
प्राकृति का विगड़ रहा संतुलन
बढ़ रहे बाढ़ और सूखे,
पूरी दुनिया का भरण करने वाले देश मैं
लाखों सो जाते हैन्हैं रोज भूखे।
सोना, चांदी च्वन्प्राश मे,
कैल्सियम, मैग्नीशीयम,
जस्ता और जिन्क जैसे पोषण(न्यूटृीयंश)
नही मिलेंगे कैप्शूल और गोलियों ये भी आने वाले दिनों मे।
कुपोषण और बीमारी का प्रकोपहै,।
सबका पेट भरता किसान ही गरीब है।।
गर्मियां, सर्दियां सूखेऔर
बाढ़ बढ़ते ही जा रहे हैं,,
जैसे बढ़ती जा रही है हमारी तृणा
और विलासिता।
किसान खेत मे हल चलाता है,
तब हमारी कार्यों मैं आनज आता है।
किसान की दुर्दशा कर हम कहाँ जाएंगे,
हम और हमारी संताने भूखे मर जायेंगे।