कविता
वो मेरा गाँव
************
जो छोड़ आई थी अपनी ठाँव
वो गली मुहल्ले ,अपना गाँव
क्या अब भी वैसा ही होगा
सुबह का सूरज शाम की छाँव ।
छत पर गौरया आकर के
क्या अब भी बैठा करती है
क्या अब भी बूढ़ी होकर माँ
दाना छत पे डाला करती है ।
बच्चे क्या खेला करते हैं
वो खेल मेरे बचपन वाले
इकटंग्गी, खो-खो ,पोशम्पा
या छुपम-छुपाई, दे धप्पा ।
क्या बाग अभी भी वो होगा
जहाँ सावन में झूली थी
कजरी विरहा के गीत खूब
सखियों संग में गाती थी ।
क्या कोयल कूकती अब भी
और बच्चे नकल बनाते हैं
मोरों संग नाच-नाच क्या वो
सावन में यूँही …नहाते हैं ।
जो छोड़ आई रिश्ते-नाते
जैसे तोड़ आई नेह के धागे
क्या हूँ अब भी मन में उनके
या बिसर गई नए नातों में ।
वो नहर किनारे बसा हुआ
छोटे से शहर से लगा हुआ
क्या अब भी वैसा ही होगा
या बदल गया अब मेरा गाँव ।
इला सिंह
************
07839040416