तुम स्वर बन आये हो
प्राणों की बंजर बस्ती में
स्वर बनकर संग आए हो ।
क्षुधा शान्त करने को मन की
स्नेह बीज संग लाए हो ।
अपलक छवि निरख कर तेरी
पूर्ण हुई प्रतीक्षित साध ।
संग में जब से तुम आए हो
पंथ हुए सारे निर्बाध ।
तुममय ही सब गोचर वृत्ति
एकनिष्ठ हो तुममें रमती ।
जीवन मूर्च्छा से लड़ने को
प्राणों सा मुझमें तुम्हें भरती ।
अब निश्चय भाग्य उदित होंगे
मूर्च्छा जीवन से जाएगी ।
प्राणों की बंजर ये बस्ती
लगता फिर से बस जाएगी।