कविता
खाली घरोंदे
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पंछी उड़ चुके हैं
घरोंदे खाली पड़े हैं
वीरान से घरों में
बचे लोग कुछ पड़े हैं
यादों में हर वक्त
बीते मंजर सजे हुए हैं
निगाहों में दूर तक
पर खाली रस्ते पड़े हैं
हथेली पे जो चेहरा
गुम याद में किसी की
आँखों में जाने आँसू
कितने छिपे पड़े हैं
चेहरे पे उतर आईं
जो बेहिसाब सलवट
उन सलवटों में कितने
पुराने पते पड़े हैं ।
इला सिंह
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