कविता
कल- कल करती नदिया कहती ।
जीवन भी एक नदी सी बहती ।
बह गई जो धारा यहाँ से,
लौट कभी क्या आया करती ।
चलना चलते जाना जीवन
रोके पर भी न रूक सकती ।
जिन्दगी थोड़े दिन की होती
दिन दिन है ये घटते जाती ।
रूकना रूक जाना मृत्यु क्षण
उछल उछल चंचल जल कहती ।
जल कण छिटक छिटक लहराती
सुख दुख भी ऐसी हीं होती ।
कल कल छल छल नाद गीत से
नदिया मधुर संगीत सुनाती ।
सब तो अपने हीं होते हैं
सबसे करना प्रीत सिखाती ।
कहती नदिया कल कल करती
झरने जैसी जीवन झरती ।
प्रमिलाश्री