कविता
गीतिका छंदाधारित गीत
भावना के फूल खिलते,तब कहीं कविता बने।
तूलिका से भाव बह कर, काव्य की सरिता बने।
जब हृदय में ताप बढ़ती, दर्द की बौछार हो।
दर्द जब हद से बढ़े तब,लेखनी में धार हो।
श्वेत कागज पर बिखरते,तब नयन से नीर हैं।
जो किसी से कह न पाये,वो हृदय का पीर है।
स्वर्ण सी जलती अगन में, तब कहीं सुचिता बने।
भावना के फूल खिलते,हैं तभी कविता बने।
सृष्टि का सौन्दर्य सारा,आत्म मंथन से गढ़ूँ।
कल्पना की सीढ़ियाँ नित,सूक्ष्म चिन्तन से चढ़ूँ।
रूप रस आनंद केवल ,श्रेष्ठ अनुभव से मिले।
सत्य की अनुभूतियाँ भी,दिव्य गौरव से मिले।
नौ- रसों से हो सुसज्जित ,सप्त सुर ललिता बने।
भावना के फूल खिलते,हैं तभी कविता बने।
शब्द निर्झर फूटते हैं, स्वयं भावों से भरे।
लीन हूँ आनंद में अब,ह्रद न घावों से भरे।
सत्य शिव सुन्दर लगे कवि, मन सृजन करने लगे।
श्रृंखलाओं छंद की सुर,ताल से सजने लगे।
दिव्य दर्शन ज्योति स्वर्णिम,पूंज-सुख सविता बने।
भावना के फूल खिलते,हैं तभी कविता बने।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली